वागड़ का ग्राम्य जीवन सजीव हो उठता है दिनेश पंचाल के कहानी संग्रह ‘खेत’ में !
राजस्थान के वागड़ अंचल के निवासी और हिंदी के सशक्त लेखक श्री दिनेश पंचाल जी के कहानी संग्रह "खेत" को पढ़ने का सौभाग्य मिला! वागड़ी बोली राजस्थान में हिंदी का रूप है मगर यह गुजराती के अधिक निकट है ऐसा मुझे प्रतीत होता है! वागड़ी, गुजराती और निमाड़ी में बहुत से शब्द समान रूप से व्यवहृत हैं।
दिनेश पंचाल का कहानी संग्रह ‘खेत’ |
"खेत" संकलन में खेत सबसे लंबी कहानी है जो ३३ पृष्ठों में देश के
ग्रामीण जीवन का सच्चा प्रतिनिधित्व करती है। जहां नाम बदलते हैं, शब्द बदलते हैं लेकिन समस्या नही बदलती, संस्कार नही
बदलते इसलिए ग्राम्य संस्कृति भी नही बदलती! चूंकि खेत संग्रह की सभी कहानियाँ ग्राम्य
जीवन का दस्तावेज बनकर हमारे सामने आती है इसलिए कह सकते हैं कि खेत कहानी अन्य
कहानियों पर छा जाती है। खेत कहानी के बाद पात्र बदलते हैं मगर कृषि प्रधान जीवन
के सभी कथानक किसी उपन्यास की अंतर्कथाओं की तरह समानान्तर चलते रहते हैं। बस कमी
है तो उन अंतर्कथाओं के खंडों में विभाजित होने की।
"खेत" देश के पूरे कृषि जगत का प्रतिनिधि बनकर अपने होने और अपना खोने की थाती लेकर हमारे सामने खड़ा होता है! "खेत" कहानी में व्याप्त समस्याएं हर जगह मौजूद है!
कहानीकार
अपने संचयन में अपनी बात "खेत, किसान, ढोर डांगर और गांव की बात" के रूप में ही बात करते हैं! इस कहानी
संग्रह की सभी कहानियाँ मुझे बहुत सकारात्मक परिणति के रूप में बहुत आशान्वित करती
है! हर कहानी ग्राम जीवन की विषमता, अभाव और स्खलन के बाद
अपने उपसंहार के रूप में आशा का संचार करने के लिए प्रतिबद्धता प्रदर्शित करती है!
लेखक का आशावादी होना 'आज के नकारात्मकता के उभार और जनवादी
वृत्तियों' के चलते अनपेक्षित रूप से सुकून से भर देता हुआ
लगता है!
‘खेत’ के लेखक दिनेश पंचाल, विकासनगर (डूंगरपुर) |
कहानी
के तत्वों के आधार पर भी सभी कहानियाँ कसी हुई है केवल ७ वीं कहानी को छोड़कर, जिसमें पिछली ६ कहानियाँ तो एक बहाव में पाठक को लहरों का आनंद देते हुए ले
चलती है, मगर ७ वीं कहानी (अनावश्यक कुछ भी नहीं) उसे धारा
से बाहर लेकर धरातल पर खड़ा कर देती है! कथावस्तु, चरित्र
चित्रण, कथोपकथन, देशकाल, भाषाशैली और उद्देश्य ये सभी अपने आवश्यक रूप में कहानी को उसके निकष पर
ले जाते हैं!
मुझे
इस संकलन के बारे में खास बात अनुभव हुई कि कहानीकार कहानी को जब ग्राम के धरातल
से उठाता है तो नायक के साथ वह आगे बढ़ता है जिसमें खलनायक प्रायः होता ही है, लेकिन
इस संग्रह की सभी कहानियाँ नायक और खलनायक की जगह कथासूत्र का नायक समूचे अंचल या
कृषि जीवन को बना देती है, लगता है कि खलनायक होकर भी नहीं
है जैसे सहज स्वाभाविक लोकजीवन का राग द्वेष, क्रोध मोह,
जीवन के सभी क्रिया-व्यापार कहानी के चरम पर जाकर नीरक्षीर की भांति
एकाकार हो जाते हैं!
मेरे लिए वागड़ी जरूर कठिन होती जिससे मेरा संपर्क बहुत कम है, गुजराती और निमाड़ी तो मेरी मातृभाषाएँ हैं! वागड़ी मेरी इन दो मातृभाषाओं की बहन की तरह है! जिसमें मुझे 'मां-सी' का बोध होता है! लेखक ने खेत संग्रह में वागड़ी के देशज शब्दों का सफल प्रयोग करते हुए हिंदी की मुख्यधारा में उन्हे नौका विहार का आनंद दिलवाया है! यह रचनाकार का युगबोध है और दायित्वबोध भी! पंचाल जी इस दिशा में मेरी ओर से खूब बधाई के पात्र हैं निज तौर पर प्रेरक भी!
खेत
कहानी संग्रह में ग्राम्यांचल की हर छोटी बड़ी चीज मुखरित हुई है! अब गाय, भैंस
की चर्चा तो दूध के परिप्रेक्ष्य में प्रेमचंद पूर्व काल में भी हुई है मगर पाड़े
की तरफ कब किसकी निगाह पड़ी? तिस पर 'सरकारी
पाड़ा' तो कतई नहीं! लेकिन पंचाल जी की कहानी में सरकारी
पाड़ा मौजूद है और अपने आसपास वह ग्रामीण परिवेश के राग-द्वेष, मोह - ममता के साथ स्थानीय राजनीति, कूटनीति को लेकर
एक सार्थक भावबोध से युक्त निष्कर्ष देकर जाता है।
कृति ‘खेत’ पढ़ते समीक्षक गजेंद्र पाटीदार |
ग्राम
जीवन हो और उसमें डाकिन का ज़िक्र न हो ऐसा कैसे हो सकता है? "डाकण" कहानी ग्राम्य परिवेश के अंधविश्वास के बीच बहुत सी परतें
उघाड़ते हुए मनोविश्लेषणात्मक तरीके से आगे बढ़ते हुए एक तीसरा कोण रचती है! एक
संवाद को आपके सम्मुख रख रहा हूँ -
जामूनी रणचंडी की तरह भीड़ की तरफ देखते हुए चिल्लाई - "हे! गांव के माई बाप। आप जाणो हो के म्हूँ डाकण नईं हूँ! पण म्हनै लागे है डाकण नईं होवू म्हारी कमजोरी है। काश! म्हू डाकण व्हैती... ।"........ "हे! मां, म्हारे ऊपर किरपा कर। अगर इण दुनिया माँय थारी ताकत अर आसीरवाद थकी बइरियाँ डाकण बणती व्हैं तो, ई ताकत म्हनै दे अर डाकण बणा दे। म्हारे दुसमनाँ थकी वैर लेवा नो हौसलो दे। हे! माँ म्हने डाकण बणा देऽऽऽ..... डाकण बणा देऽऽऽ.... डा... क... ण!"
सच
में यह किताब एक नया दृष्टिकोण देने का सार्थक प्रयास करते हुए हमें सम्पन्न करती पठनीय
किताब है! जो नौ कहानियों के १५१ पृष्ठों के वितान के साथ "खेत" शीर्षक
से प्रकाशित है! दिनेश जी लोक जीवन के रचनाकार के रूप में हमें बहुत कुछ देने की
संभावनाओं के उदीयमान हस्ताक्षर हैं!
प्रकाशक: विजया बुक्स, नई
दिल्ली
समर्पण: रु. 275
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