क्या इस बार सागवाड़ा विधानसभा का रण क्षेत्र होगा ओबरी?

राजस्थान में अगामी विधानसभा चुनाव पर एक सियासी विश्लेषण


राजस्थान विधानसभा चुनाव की आहट होते ही पूरे राजस्थान में सियासी सरगर्मी बढ़ गई है। ऐसे में दक्षिणांचल वागड़ के डूंगरपुर जिले का सागवाड़ा विधानसभा क्षेत्र भी अछूता नहीं है।

सागवाड़ा विस पूरे वागड़ में एक हाई प्रोफाइल सीट रही है। जनजाति बहुल वागड़ में सागवाड़ा सीट की अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां से राजस्थान के दिग्गज नेता और कभी राष्ट्रपति पद के दावेदार रहे भीखाभाई भील जीत कर जाया करते थे। उनके बाद उनकी पुत्री कमला बाई और पुत्र सुरेंद्र बामनिया के जरिए इस सीट पर भीखाभाई के परिवार का कब्जा रहा। तो दूसरी तरफ भाजपा के सांसद कनकमल कटारा का भी दबदबा रहा। वह खुद और उनकी पुत्रवधू अनिता कटारा यहां से विधायक रही हैं। बीटीपी के उदय की धरती भी सागवाड़ा विस क्षेत्र ही रही जहां से रामप्रसाद डेंडोर और बगल की चौरासी सीट से राजकुमार रोत ने पिछले चुनाव में बीटीपी का परचम लहराकर सबको अचंभे में डाल दिया।


इस बार विधानसभा चुनाव में भी सबकी नजरें सागवाड़ा सीट पर हैं। चाहे भाजपा हो या कांग्रेस या BTP जैसी तीसरी शक्ति। वागड़ के सियासी तापमान का पैमाना यह सीट ही रहेगी।

क्योंकि इस बार के परिणाम न सिर्फ भाजपा सांसद कनकमल कटारा, बल्कि कांग्रेस के कद्दावर नेता दिनेश खोड़निया और BTP के रामप्रसाद डेंडोर के लिए भी अग्नि परीक्षा साबित होने जा रहे हैं।

फ़िलहाल टिकट दावेदारों पे नजर  डाली जाए तो इस बार कांग्रेस में करीब एक दर्जन नेताओं ने टिकट मांगी है। कभी भीखा भाई जैसे कद्दावर नेता के परिवार के कब्जे में रही सागवाड़ा सीट पर अब भी उनका परिवार दावेदारी कर रहा है। इसमें सबसे आगे सौम्य स्वभाव के पूर्व विधायक सुरेंद्र बामनिया ताल ठोक रहे हैं, तो उनका भतीजा भास्कर बामनिया भी टिकट की कतार में है। सुरेंद्र बामनिया पिछले चुनाव में खड़े हुए थे, लेकिन वोटो के लिहाज से तीसरे नंबर पर रहे। तो दूसरी और गहलोत के करीबी पूर्व जिलाध्यक्ष दिनेश खोड़निया से उनकी अनबन जग जाहिर है। लिहाजा सचिन पायलट के खेमे की चली तो ही सुरेंद्र बामनिया को सफलता मिल सकती है।

इनके अलावा, इनके ही परिवार से पूर्व प्रधान भास्कर बामनिया भी दावेदारी जता रहे हैं। तो भीखाभाई परिवार से परे ओबरी क्षेत्र से छाणी सरपंच और सरपंच संघ के ब्लॉक अध्यक्ष कैलाश रोत, सागवाड़ा नगरपालिका पार्षद और मृदुभाषी व मिलनसार व्यक्तित्व के धनी विमल कलासुआ (बिलिया), ओबरी सरपंच शंकर डामोर रेस में हैं। वहीं सेवादल के पूर्व जिलाध्यक्ष और बकायदा ऑफिस खोलकर विगत कई वर्षों से जनता की सेवा में सक्रिय मनोहर कोटेड और जिला परिषद सदस्य हरीश अहारी समेत एक दर्जन दावेदार और हैं।

इन में खोड़निया के करीबी और युवा नेता कैलाश रोत दौड़ में सबसे आगे प्रतीत हो रहे हैं। वह पूर्व में लैंप्स डायरेक्टर और यूथ कांग्रेस में अपनी भूमिका निभाते हुए पिछले तेरह वर्षो से राजनीति में सक्रिय हैं।



दूसरी तरफ, विगत विधानसभा चुनाव में दूसरे नंबर पर रही भाजपा में भी टिकट का घामासन जारी है। पूर्व चुनाव में आंतरिक कलह और अनिता कटारा के बागी होने के कारण महज 4800 वोट से पिछड़ने वाले शंकरलाल डेचा इस बार भी खुलकर मैदान में हैं। ओबरी क्षेत्र से उनके अलावा पूर्व शिक्षाधिकारी कांतिलाल डामोर (वासेला) भी विगत कई वर्षों से संगठन और सामाजिक जीवन में सक्रिय हैं। वह संघ की पृष्ठभुमि से हैं,  उनकी संगठनात्मक क्षमता और वैचारिक प्रतिबद्धता काबिल ए गौर है. उनके अलावा ओबरी बेल्ट से ही रेखा रोत का नाम भी चर्चा में है. वह सागवाड़ा की पूर्व प्रधान और फिलहाल जिला परिषद सदस्य हैं. एक महिला होना उनका प्लस पॉइंट है, साथ ही वह पार्टी की खेमेबाज़ी से दूर नज़र आती हैं. यदि किसी महिला को टिकट देने का विचार आया तो वह ताल ठोंक सकती हैं. उनकी  ओबरी क्षेत्र से परे सागवाड़ा प्रधान ईश्वरलाल सरपोटा, जिलाप्रमुख सूर्या अहारी के पति बलबीर अहारी, हिम्मतराम कटारावासुदेव बरजोड भी जोर आजमाइश में हैं। 

वहीं पूर्व विधायक एवं डूंगरपुर बांसवाड़ा क्षेत्र से मौजूदा भाजपा सांसद कनकमल कटारा और उनकी पुत्रवधू अनिता कटारा भी टिकट के अभिलाषी हैं। अनीता कटारा को छह वर्ष के निलंबन के बावजूद हाल ही में पार्टी में वापस लिया गया है। वह अपने निलंबन के बावजूद सामाजिक रूप से काफी सक्रिय रही हैं। वहीं महिलाओं के साथ तालमेल बिठाने में वह महारत उनकी जमा पूंजी है। लेकिन उनकी बगावत के चलते शंकर डेचा जीतते जीतते हार गए थे। ये घाव जनमानस और भाजपाइयों के मन में अब भी हरा है। कटारा परिवार से ही उनके ससुर और कद्दावर भाजपा नेता कनकमल कटारा भी टिकट की आस में हैं। अगले साल उनका संसदीय कार्यकाल समाप्त होने वाला है और इस बार लोकसभा टिकट बांसवाडा को जाएगी। ऐसे में वह अपनी राजनैतिक ताकत बरकरार रखने के लिए विधायकी और उसके बाद मंत्री पद का जुगाड करें तो कोई हैरानी नहीं। कटारा के पास लम्बा राजनीतिक अनुभव और पार्टी में पहुंच है। लेकिन परिवारवाद का आरोप, सांसदी के दौरान कई क्षेत्रों की उपेक्षा जैसे नकारात्मक पहलुओं से उन्हें जूझना होगा।

 


भाजपा की इस फेहरिस्त में भी ओबरी क्षेत्र से शंकर डेचा प्रबल दावेदार दिख रहे हैं। करीब तीस साल से राजनीतिक जीवन जी रहे डेचा पिछली बार बहुत कम अंतर से बीटीपी उम्मीदवार रामप्रसाद डेंडोर से मात खा गए थे। लिहाजा जनता की सहानुभूति उनके साथ देखी जा सकती है। विगत पच्चीस साल से डेचा गांव की सरपंची उनके या उनके परिवार के पास रही है। इसके अलावा वह सागवाड़ा के प्रधान भी रह चुके हैं। जन सामान्य में साफ, बेदाग छवि और जनरल ओबीसी वर्ग में पैठ उनकी जमा पूंजी है। लेकिन उन्हें पॉलिटिकल मैनेजमेंट के मोर्चे पर मेहनत करनी होगी।

 


कांग्रेस -भाजपा की इस जंग के बीच बी ए पी बन चुकी बीटीपी को अनदेखा नहीं किया जा सकता। पिछले चुनाव में दोनो बड़ी पार्टियों ने बीटीपी को हल्के में लिया था। जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। और तीसरे नंबर की मानी जा रही बीटीपी ने दोनो बड़ी पार्टियों के तंबू उखाड़कर अपने झंडे गाड़ दिए थे। इस बार बीटीपी नए तेवर और नाम के साथ...बीएपी यानी बाप बन गई है। बीटीपी में तय हुआ था कि एक बार विधायक बन चुका प्रत्याशी दुबारा टिकट नहीं मांगेगा। लेकिन अब वह गुजरे कल और गुजरी पार्टी की बात हो गई है। सियासत और पॉवर का चस्का कौन छोड़ना चाहेगा? लिहाजा रामप्रसाद डेंडोर फिर से सागवाड़ा विधानसभा क्षेत्र से ताल ठोकेंगे तो हैरानी नहीं होगी। लेकिन उनके सामने चुनौती पेश कर रहे दो युवा चेहरे योगेश खांट और आजाद कलासुआ भी ओबरी क्षेत्र से हैं। आज़ाद बिलिया ग्राम पंचायत से सरपंच हैं, वहीं उनकी पत्नी माया कलासुआ जिला परिषद सदस्य है। विगत पंचायती राज चुनाव में वह कांग्रेस भाजपा के गठजोड़ के चलते जिला प्रमुख बनते बनते रह गई। इसी तरह ओबरी क्षेत्र के गड़ा वेजनिया से पंचायत समिति सदस्य और पसस संघ के जिलाध्यक्ष योगेश खांट भी बाप से टिकट की दौड़ में हैं। वह सागवाड़ा प्रधान पद की दावेदारी थे और क्षेत्र में सामाजिक रूप से समन्वयवादी प्रकृति के होने से निरंतर जनसंपर्क में हैं।

 



बीटीपी की जमीन खिसककर बाप के खड़े होने के बाद, इस बार बीटीपी का सारा वोट शेयर और नेतृत्व बाप के पास चला गया है। जिससे फिलहाल बीटीपी बेअसर दिख रही है। उसके उम्मीदवारों की कोई चर्चा भी नहीं है।

इस तरह सागवाड़ा विधानसभा क्षेत्र पे नज़र डालें तो आजादी के बाद पहली बार तीनो पार्टियों में ओबरी क्षेत्र से प्रबल दावेदारी का उभार साफ दिख रहा है। और इसके पीछे भौगोलिक और  राजनीतिक कारणों के अलावा इस क्षेत्र की लगातार उपेक्षा भी है। पूर्व में यहां के एडवोकेट बक्सीराम रोत ने भीखाभाई के सामने चुनौती पेश की थी, लेकिन आखिरकार बिठा दिया गया। वहीं प्रधान से लेकर विधायकी तक शंकर डेचा को संघर्ष करना पड़ा और जब टिकट मिली भी तो पार्टी की अंतर्कलह से बाज़ी हार गए। बीस गांवों में फैले ओबरी क्षेत्र की जनता में अंडर करंट इन सब पहलुओं का मलाल कायम है। और जो भी पार्टी इस क्षेत्र को तरजीह देकर भुनाना चाहे, भुना लेगी। चाहे वह शंकर डेचा के जरिए भाजपा हो या कैलाश रोत के जरिए कांग्रेस या योगेश खांट और आजाद कलासुआ के जरिए बाप! इस बार सागवाड़ा विधानसभा में ओबरी का डंका या डंक तय है। बाकी सोचना पार्टी आलाकमान को है।

 

~ जितेंद्र जवाहर दवे


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