वागड का कल्पद्रुम-सा शासक धनिक परमार
- डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
वागड के प्रारंभिक शासकों में धनिक का नाम स्मरणीय है। वह अपने नाम के अनुसार धनिक ही था, धनपति। पाराहेडा के अभिलेख में उसे 'धनेश्वर इव' अर्थात धनपति जैसा कहा गया है। उसने युद्ध अभियानों के साथ ही वागड जैसे वन प्रदेश में पर्याप्त संपत्ति का अर्जन किया था। संपति के अभाव में राज्य खडा करना नि:संदेह कठिन होता है, मगर ऐसे कौन से कारण रहे होंगे कि जिनकी वजह से यहां एक राज्य की नींव पडी। यह विचारणीय है। यह परमार वंश धार (मध्यप्रदेश) से संबद्ध था। अर्थुणा (उर्त्थूणक) राजधानी थी, वहां से पराहेडा, झाबुआ और धार- यही रास्ता था तब और आज भी इस रास्ते पर परमार कालीन स्थापत्य के अनेकों अवशेष मिलते हैं।
क्या गुजरात से वागड होकर तत्कालीन राजपुताना जाने वाले व्यापारियों से इतनी आय हो जाती थी, चावल ही तो इस प्रदेश का मुख्य उत्पाद था। मगर ये भी सच है कि इधर उत्पात बहुत होते थे, खासकर आजादी पसंद वनवासी समुदाय के कारण जिनका जंगल ही धन था। इतिहास में लाग-बाग, लाटा-कुंता आदि पर यकीन करें तो इतनी लागतें शायद इस समुदाय को भी चुकानी पडती होंगी।
गुजरात के जयसिंह सिद्धराज के चरित्र का अनुशीलन करें तो ज्ञात होता है कि जंगलवासियों को आधीन करना भी एक बडा श्रेय होता था। मगर, यह सच लगता है कि इधर राज्य की नींव रखने में कोई बडा स्रोत जरूर रहा होगा।
धनिक ने ऐसा ही कुछ कर दिखाया होगा। वैसे मालवराज वैरसिंह जिसका नाम वज्रटस्वामी भी है, धारा नगरी को तलवार की धार से शत्रुओं से मुक्त किया तब उसका धनिक ने भी साथ दिया। उसने अपने पिता डंबरसिंह को जागीर के तौर पर मिले वागड प्रदेश को भी यश देने का पूरा प्रयास किया। यह प्रयास प्रशासन और राजस्व अर्जन के स्तर पर रहा होगा। वह शिवभक्त था और उसका नाम तब ख्यातिलब्ध हुआ था। वीरता, उदारता और भक्ति के कारण ही उसने वनांचल में अपना दबदबा कायम किया।
उसने महाकाल मंदिर के पास अपने नाम से 'धनेश्वर' महादेव का मंदिर बनवाया। आज शायद उसके अवशेष भी नहीं है। मगर, स्रोत यह सिद्ध करते हैं कि यह मंदिर हिमपाण्डुर जैसा अर्थात् अराइश से पुता हुआ सफेद झक दिखाई देता था। यहां कीर्तन जैसी परंपरा का भी उसने प्रवर्तन करके स्वयं वहां विराजमान हुआ था। वह त्याग में कल्पवृक्ष के समान था -
अत्रासीत्परमार वंशविततो लब्ध्वान्वय: पार्थिवो।
नाम्ना श्रीधनिको धनेश्वर इव त्यागैक कल्पद्रुम:।
श्रीमहाकाल देवस्य निकटे हिमपाण्डुरम्।
श्रीधनेश्वर इत्युच्चै: कीर्तनं यस्य राजते।। **
इस साक्ष्य से यह भी लगता है कि वह उज्जैन में ही रहा। संभवत: राज्य के सुखों को त्यागकर एक और बुद्ध की तरह। राजाओं ने इस काल में ऐसे उदाहरण प्रस्तुत भी किए हैं। धनिक उनमें ही एक था। धनिक नि:संतान ही रहा किंतु उसके भाई का बेटा चच्च उसका उत्तराधिकारी हुआ।
धनेश्वर का प्रसंग पद्मपुराण में आया है। कार्तिक माहात्म्य के 26 वें अध्याय में आया है :
पुराsवंतीपुरे कश्चिद्विप्र असीद्धनेश्वर।
ब्रह्मकर्मपरिभ्रष्ट: पापकर्मा सुदुर्मति:।। ( २६, १)
यह पुराण धनेश्वर के आख्यान को दो अध्यायों में देता है। यह संयोग ही है कि धनेश्वर अनेक देशों में यात्रा करता हुआ माहिष्मति पहुंचा था। हालांकि वह ब्राह्मण कुल से था।
कंकदेव जैसा पराक्रमी उसी चच्च का पुत्र था।
यह वह दौर था जबकि सामंतों में प्रासाद निर्माण की विशेष ललक रहती थी और किसी भी तीर्थ में वे अपने नाम से प्रासाद बनवाकर दान, सदाव्रत जैसी किसी परंपरा का प्रचलन करते थे। लिंगपुराण, सौर पुराण, शिवपुराण आदि का पुनर्संस्करण, संपादन इसी काल के आसपास हो रहा था। ("भारतीय इतिहास के स्रोत" पुस्तक से)
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** पाराहेडा 1059 ई. का अभिलेख।
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