तपती गर्मी में वागड़ की ख़ूबसूरती को चार चाँद लगाते पलाश के फूल धार्मिक और सेहतमंद भी हैं !

फाल्गुनी रंग बिखरे है लाल-पीले फूल पलाश के, मानो रेगिस्तान में नखलिस्तान का अहसास हैं! बसन्त ऋतू के आगमन के साथ ही फाल्गुनी रंग बिखेरने लगता है पलाश का फूल। जो पूरी गर्मी में अपनी आभा बिखेरते रहते हैं। और  तपती धूप में हमारी आँखो को राहत देते हैं।
स्थानीय भाषा मे खाखरे के पेड़ पर लगने वाले फूल को किंशुक, पलाश, ढाक, टेसू, परसा, केसू आदि नामो से भी जाना जाता है। इन फूलों के खिलने से जो आकर्षण होता है और रात्रि में हल्की चमक होने से इनसे जंगल मे आग का आभास होता है।
वागड़ में लाल पलाश के फूल । फोटो: मुकेश द्विवेदी
वागड़-मेवाड़ में इसके पेडों की अधिकता पायी जाती है। वैसे पलाश के फूल लाल, सफेद एवम पीले रंग के होते है,  लाल रंग के पलाश फूल के पेड अधिक संख्या में पाए जाते है।  पीले रंग के फूल के पेड़ डूंगरपुर से 7 किमी दूर सरकण एवम रेलड़ा में एक पेड़ पाया गया है, सफेद फूल भाग्यशाली माने जाते है परन्तु यह इस क्षेत्र में नही है।
लाल पलाश के फूल, पेड़ एवम जड़ का आयुवेर्दिक,  धार्मिक कार्यों में महत्वपूर्ण स्थान होता है। आयुर्वेदिक दृष्टि से पेशाब समस्या, आँख, शारीरिक गर्मी, रतोंधी, बच्चों के पेट दर्द, बवासीर, गर्भवती महिला, कुष्ठ रोग, रक्त संचार में उपयोग होना बताया जाता है। इसके गोंद से हड्डियां मजबूत होती है। धार्मिक रूप से यज्ञ कर्म एवम यज्ञोपवीत में दण्डिका का महत्व होता है।
वागड़ में पीले पलाश के फूल । फोटो: मुकेश द्विवेदी
इसकी छाल के रेशे से जहाज की दरारों में भरकर भीतर पानी आने से रोका जाता है। पतली टहनियों से कत्था भी बनता है। इसके पत्तों से पत्तल-दोने बनाये जाते है।
इन फूलों के आकर्षण से कवि भी आकर्षित हुए बिना नही रहे है और कई कविताओं का सृजन किया है। कवि की उपमा की ये पंक्तियां...
"ये है सघन वन है या जलती ज्वाला"

बृज, नंद गाँव, बरसाने की होली में इससे बने रंगों का उपयोग होता है । फूलों को सुखाकर मिक्सर में पीसकर हर्बल रंग तय्यार होता है । वन विभाग यदि पहल करे तो वागड़ में इससे बनने वाले रंग का व्यवसाय गृह उद्योग पल्लवित हो सकता है।


फोटो एव फीचर  मुकेश द्विवेदी वरिष्ठ फोटो जर्नलिस्ट, डूंगरपुर 

1 टिप्पणी

Xyz ने कहा…

ढाक के तीन पात