सागवाड़ा का 11वीं शताब्दी का गमरेश्वर महादेव मंदिर- यहाँ गोल नहीं चोकोर हैं स्वयंभू शिवलिंग
आमतौर पर गोलाई में अंडाकार होते हैं शिवलिंग, यहां
चतुष्कोण आकार में विराजित हैं महादेव,
बीयाबान जंगल मे चातुर्मास में ब्राह्मण मंदिर में रह कर करते
थे आराधना, भुताजी की वाव के जल से दिनभर होता था अभिषेक, 1985 में मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी ने 108 कुंडी यज्ञ में
यहां की थी शिरकत, मणिकर्णकेश्वर महादेव की स्थापना की थी
डूंगरपुर जिले में सागवाड़ा नगर के बांसवाडा रोड़ पर गमरेश्वर
तालाब और श्मशान घाट के बीच में स्थित है 11 वीं शताब्दी का प्रसिद्ध
गमरेश्वर महादेव मंदिर। शिव महादेव के एक नाम श्मशान वासी के अनुसार ही यहां
श्मशान घाट से सट कर मंदिर बना हुआ है। मंदिर का मध्य भारत में प्रचलित नागर शैली
का स्थापत्य बड़ा आकर्षक है।
मंदिर में चतुर्मुख स्वयंभू शिवलिंग विराजमान हैं। लोग बताते
हैं कि पहले यहां से सागवाड़ा कस्बे की सीमा शुरू होती थी। सीमा पर नगर के रक्षक के
रूप में गमरेश्वर महादेव का मंदिर स्थापित हुआ। यहां मंगरी थी, जिसके
पूर्वी भाग में गमरेश्वर महादेव और पश्चिम की तरफ श्मशान घाट बने हुए थे, धीरे धीरे मंगरी तो समतल हो गई लेकिन मंदिर और श्मशान घाट उसी जगह पर आज
भी एक दूसरे से सटे हुए मौजूद हैं। मंदिर में मौजूद प्राचीन शिलालेख मंदिर के
इतिहास की गवाही देता है।
चकोर शिवलिंग, दो द्वार गणेश:
आमतौर पर मंदिरों में महादेव के शिवलिंग गोलाई लिए हुए अंडाकार
होते हैं लेकिन गमरेश्वर महादेव की विशेषता यह है कि यहां का चमत्कारिक स्वयंभू
शिवलिंग चार कोने वाला है। इसलिए शिव भक्त इसे चतुर्मुख गमरेश्वर महादेव भी
पुकारते हैं। मंदिर में दो सफेद पत्थर पर तराशी हुई आकर्षक द्वारा गणेश की
मूर्तियां गर्भगृह के बाहर स्थापित हैं। गर्भगृह के ठीक सामने काले चमकीले पत्थर
की विशाल आकर्षक नंदी महाराज की प्रतिमा स्थापित की हुई है। मंदिर परिसर में नाथ
संप्रदाय की जागृत धुणी भी है जिसे हेतनाथजी महाराज द्वारा वर्षों पूर्व स्थापित
की गई थी।
चारों तरफ जंगल था, कावड़ से जल लाकर करते थे
अभिषेक:
वर्तमान में श्रावण और चातुर्मास में नियमित पूजन और अभिषेक के
लिए आने वाले पंडित जयदेव शुक्ला, पंकज पंड्या, अशोक
पंड्या, भुवनेश त्रिवेदी, मनोज शुक्ला,
विनय शुक्ला, कमलेश शुक्ला, नवीन ठाकुर और पुजारी रमेश मामा सेवक बताते हैं कि यहां पहले चारों तरफ
जंगल फैला हुआ था। ऐसे कठिन समय में भी गमरेश्वर महादेव के प्रति लोगों की गहरी
आस्था रही है। पुराने विद्वान ब्राह्मणों में स्वर्गीय शांति शंकर शुक्ला, जटाशंकर राणा, रमणलाल पंड्या, कृष्णलाल
पंड्या, चंचर लाल पंड्या, दुर्गाशंकर
ठाकुर, ध्रुवशंकर त्रिवेदी, मणिशंकर
पंड्या, तुलजाशंकर शुक्ला ऐसे विद्वान ब्राह्मण हो गए जो
पूरा चातुर्मास इसी मंदिर में शिवार्चन में बिताते थे। आज जहां गामोठवाड़ा नई
आबादी का विस्तार हुआ है वहां भुताजी की वाव (बावड़ी) से नियमित कावड़ से जल लाकर
भगवान का अभिषेक किया जाता था। कई भक्तों द्वारा पार्थेश्वर भी बनाकर नियमित रोज
पूजन किया जाता था, पूजन के बाद पार्थेश्वर को मंदिर के
सामने गमरेश्वर तालाब में बनी हुई गंगा वाव में विसर्जित करते थे।
जीर्णोद्धार के बाद 1985 में हुआ था 109 कुंडी महायाग, मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी आए थे:
हालांकि समय समय पर मंदिर का जीर्णोद्धार कर इसके आकर्षण को बढ़ाने का कार्य किया जा रहा है, लेकिन करीब 38 साल पहले हुआ मंदिर का जीर्णोद्धार आज भी यादगार बना हुआ है। जीर्णोद्धार के बाद वर्ष 1985 में मंदिर परिसर और पास की सटी हुई भूमि पर विशाल 109 कुंडी महायाग का आयोजन हुआ था। जिसमें मुख्य मंत्री स्व हरिदेव जोशी और पं स्व. मणिशंकर पंड्या के हाथों से गमरेश्वर मंदिर के अग्र भाग में मणिकर्णकेश्वर महादेव ज्योतिर्लिंग की स्थापना हुई थी।
नेमा समाज के लोग करीब 100 साल से श्रावण में रोज
करते हैं पहली पूजा:
गमरेश्वर महादेव के प्रति सर्व समाज की गहरी आस्था बनी हुई है।
यहां नगर के नेमा महाजन समाज द्वारा हर साल श्रावण माह में सुबह 5 बजे
ब्रम्ह मुहूर्त में पहली पूजा पिछले करीब 100 सालों से की
जाती है। रतनलाल वाडेल, धर्मिलाल वाडेल, नारायणलाल गुप्ता, बसंतलाल दोसी, भगवतीलाल दोसी, जीतमल मुनी, रणछोड़
तंबोली आदि बुजुर्गों के बाद अब उनकी अगली पीढ़ी में संजय गुप्ता, अनील वाडेल इस भक्ति परंपरा को निभा रहे हैं। इसमें प्रकाश सिंधी, दिनेश गुप्ता और कृष्णमोहन जैसे शिवभक्त जुड़ गए हैं। बुजुर्गों में अभी
प्रभुलाल वाडेल इस परंपरा में पूरी तरह सक्रिय हैं।
फोटो फीचर: अखिलेश पंड्या
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