वागड़ के मुंशी प्रेमचंद- पन्नालाल पटेल
गुजरात की वस्त्र नगरी अहमदाबाद के एक व्यस्त चौराहे से सटे मैदान में एक
विशाल शामियाना तना था, भीतर चल रहा था गुजराती भाषा
साहित्य का अधिवेशन।
मंच पर बड़ी-बड़ी साहित्यिक एवं राजनीतिक हस्तियों के बीच समारोह की शोभा
बढ़ा रहे थे स्वयं बापू यानि महात्मा गांधी। उनके पास ही बैठे थे गांधी जी के
मित्र , समारोह के कर्ताधर्ता, गुजराती के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार उमाशंकर जोशी। समारोह अपने परवान पर
था ठीक उसी समय पास की जिनिंग मील में पारी बदलने का सायरन बजा।काम से छूटने वाले
कामगारों की एक टोली उत्सुकता वश पाण्डाल में आ पहुंची ।उन्हीं में एक युवक मंच के
सामने पाण्डाल के आखिरी छोर पर खड़ा तल्लीनता से गांधीजी के उद्बोधन को सुन रहा
था। गांधीजी कह रहे थे -"किसी बोली को भाषा बनाने के लिए उसमें लेखन जरूरी
है।आप सभी महानुभावों से मेरा आग्रह है कि आप अपनी भाषा में लिखिये,तभी गुजराती सशक्त भाषा बन सकेगी।
युवक उस सम्बोधन में लगभग खो सा गया था,उसे लगा-उसकी रूचि को मानों एक दिशा मिल गयी हो।
इसी बीच मंच पर बैठे उमाशंकर जी की दृष्टि उस श्रमिक पर पड़ी। दृष्टि क्या पड़ी मानों वहीं अटक कर रह गयी। चाहकर भी वह ध्यान नहीं हटा पा रहे थे।जाने ऐसा क्या था उस मजदूर में जो वह इतना आकर्षित हुए थे। कहीं न कहीं कुछ तो जाना पहचाना सा महसूस हो रहा था।
मजदूर युवक इस सबसे बेखबर भाषण सुनने में व्यस्त था।
ऐ भाई!इधर आ तो।---एक आवाज सुनाई दी जैसे किसी ने उसे पुकारा हो। किन्तु
उसने अनसुनी कर दी।हो सकता है किसी ने किसी को आवाज दी हो।वह क्षणभर ठिठक कर अपने
काम में व्यस्त हो गया।तभी वह आवाज फिर से सुनाई दी।पुकारने वाले की दिशा में देखा
तो एक अपरिचित व्यक्ति उसी को आवाज दे रहा था।
उसने जिज्ञासु प्रश्न भरी दृष्टि से उधर देखा।
हां, हां , तमनेज्
कहूं छूं।(तुम्हें ही बुला रहा हूं।)अंइया आवजो खरा। पैला साहेब तुमने बोलावे छे।
उस व्यक्ति ने मंच पर बैठे उमाशंकर जी की ओर संकेत करते हुए गुजराती लहजे में कहा तो
युवा मजदूर कुछ पलों को हड़बड़ा सा गया।क्या बात हो गई?उससे
अनजाने में कोई ग़लती हो गयी क्या?
उसे डरा -घबराया देख उस व्यक्ति ने कहा -घबराओ मत,साहेब बड़े भले आदमी हैं।
संकोच के साथ वह सामने आ खड़ा हुआ,कहो सेठ,हूं वात है?
राजस्थानी छो?
हौव।
कइया गाम ना रेवासी?
म़्हू?कैम?
कहो ते खरी।
मांडली----
मांडली----!!! सुनते ही उमाशंकरजी के शरीर में एक झुरझुरी सी दौड़ गयी। लगा
,मांडली ---कहीं यह वहीं तो नहीं???
नहीं ,वह कैसे हो सकता है?? किन्तु जन्मजात मजदूर भी तो नहीं लग रहा।शक्ल भी ---ऐसा कैसे हो सकता है?
विचारों के झंझावात में घिर गये।
उन्हें विचारों में खोया देख उस मजदूर युवक को थोड़ा आश्चर्य सा हुआ किन्तु
अनदेखा करते हुए बोला-
कहो सेठ,कोई काम काज?
पैला तारू नाम ते वताड़ ।
नाम में हूं मैल्यू है सेठ, कोई काम होवे ते कहो।
पण तू नाम ते बोल, उन्होंने जोर देकर कहा। अपने मन
के अनुमान को सत्य का जामा पहनाते देख वे भी अजीब सी भावुकता से भर गये थे।
पन्नों----,पन्नालाल।
सूं!!!! सुनते ही उनको को जैसे हजार वोल्ट बिजली का करंट एकसाथ लग गया।
बचपन का बिछड़ा मित्र!!!!पर वह , यहां ?इस हाल में? असम्भव---फिर
भी भावनाओं पर नियंत्रण करते हुए उन्होंने कहा ही दिया -पन्नालाल नानालाल पटेल?खरे खरी?(जैसे मन के संशय को सत्य की कसौटी पर कस
रहे हों।)
बस वह तो बरसों से बिछड़े अपने बचपन के मित्र को अनायास ही सामने पाकर भाव
विह्वल हो गये थे।
रूंधे गले से कांपती आवाज़ में पूछा -
ओलख्यो मनै? म़्हूं कोण???
युवक असमंजस में पड़ गया।उसे इस हाल में देख वह स्वयं को रोक नहीं पाये ,पूरे अपनेपन से कहा -अलै,गधेड़ा ,म़्हूं छूं,तारो गोठियो ,माण्डली
इस्कूल वारो उमियों, उमाशंकर।ओलख्यो हवै????
बरसों बाद बचपन के सखा से यों अप्रत्याशित भेंट ने औपचारिकता की सारी
सीमाओं को नकार दिया और वह उससे लिपट गये। ठीक उसी तरह जैसे कृष्ण अपने सखा सुदामा
को देखकर हुए थे।
ठीक उसी समय बापू का उद्बोधन भी पूरा हुआ ।वे अपने आसन पर वापस लौटे।
बापू ,इससे मिलिए।यह है पन्नालाल पटेल,मेरे बचपन का सखा। बरसों बाद आज अचानक मिला है।
पन्नालाल को सबकुछ एक सपने सा लग रहा था। विश्वास ही नहीं हो पा रहा था ,होता भी तो कैसे?
कहां भाग्य के हाथों पराजित एक अनाथ मील मजदूर। कहां बरसों बाद अनायास ही
बचपन के मित्र से मिलना ।मित्र भी कोई साधारण आदमी नहीं।अन्य कोई होता तो
संभवतः:देखकर भी अनदेखा कर देता।पर यहां तो बिल्कुल उल्टा हुआ था।तिसपर महात्मा
गांधी से मुलाकात,उनके साथ मंच पर बैठना!!!!सपना
नहीं तो क्या था????
उसकी हैसियत के अनुसार तो वह भीड़ का हिस्सा बन बापू के दूर से ही दर्शन
मात्र से अपने को कृतार्थ समझ सकता था।पर यहां तो बापू के साथ-----
अधिवेशन और उमाशंकर जी से भेंट उसके जीवन में अकल्पनीय परिवर्तनकारी सिद्ध
हुआ।
कार्यक्रम के पश्चात् दोनों मित्र बड़ी देर तक अतीत पर बतियाते रहे।
उमाशंकर जी उसके दुर्भाग्य पर बहुत दुःखी हुए।
जो होगया बहुत ही बुरा हुआ।पर हो हुआ गया तो अब रोने का औचित्य भी नहीं।अब
तो आगे बढ़।फिर मैं हूं न तेरे साथ। उन्होंने पन्नालाल का हौसला बढ़ाते हुए कहा।
परिस्थिति ने पन्नालाल को पांचवीं से आगे पढ़ने नहीं दिया पर सृजन का कीड़ा
अवश्य कुलबुलाता था उसके मानस में।
यदा- कदा वह कुछ पंक्तियां कविता की बना लेता था । बापू के आह्वान और मित्र
के मार्गदर्शन ने उसे दिशा और गति दोनों प्रदान कर दी। एकबार सृजन के रथ पर सवार
होकर जो चल पड़े तो पीछे मुड़कर नहीं देखा।
उमाशंकर जी के सहयोग से गुजराती लिखना पढ़ना सीखा।उन्हीं के आग्रह से
शनै:शनै: कविताओं से कहानियों की दिशा में सृजन आरम्भ किया। उनकी कहानियां क्या थी
,आम आदमी की पीड़ा और जीवन
संघर्षों का जीवंत चित्रण ही थी। इन्हीं कहानियों के साथ गुजराती साहित्य में एक
नये युग का जन्म हुआ जिसे *जनपदी नवलकथा* कहा गया ।इस विधा
के सर्जक या मूल पुरूष पन्नालाल पटेल को ही कहा जा सकता है।
1936में फूल छाप के लिए पहली नवलकथा *सेठ नी शारदा* से
प्रकाशन यात्रा आरम्भ हुई तो अनवरत चलती रही।मेघाणी जी के आग्रह पर फूल छाप के लिए
प्रणय पर आधारित नवलकथा *मऴेला जीव* का सृजन हुआ। तत्पश्चात् स्वयं के जीवन संघर्ष
पर आधारित *वसंती दिवसो* जैसी रचनाओं के साथ ही गुजरात के साहित्य जगत में अपनी
अलग ही पहचान बना ली। प्रख्यात गुजराती साहित्यकार मनुभाई पंचोली ने पटेल की
कथाशैली को काल प्रधान नवलकथा कहा तो वहीं कवि सुंदरम् (त्रिभुवन दास लुहार)ने
भींत फाड़ी ने उग्यो पीपऴो की उपमा दी।
कथाओं की इस यात्रा में 28कहानी संग्रह,30उपन्यास,2नाटक,बाल साहित्य और
आत्मकथा का अकूत खजाना सम्मिलित है। जिनमें प्रमुख रूप से क्रमश:काशी मां नी कोथरी,घर नू घर,फकीरो,अलप-जलप,पार्थ ने कहो-चढावे बाण,अजवाऴी रात अमास नी,भूखी भूतावड़,वातरोक ना कांठै,एक
खोवाएलो छोकरो,जीवो डाण्ड,पानेदर नो
रंग,अप्प दीपो भव:,मनवा ना मोरला,जमाईराज,नथी परणियां,नथी
कुंवारा,गूंगे सुर बांसुरी के,परम
वैष्णव, ज़िन्दगी ना खेल,गुरू दक्षिणा,एक अनोखी प्रीत,सुरभि,नवु लुई,के साथ ही उपन्यासों की श्रृंखला में मलैला जीव -1941,जीवी,रक्त गुलाल,1969में कंकू
जिसपर गुजराती फिल्म कंकू का निर्माण हुआ है।तथा 1985में
छप्पनियो दुकाल(छप्पन के दुष्काल)पर आधारित * मानवी नी भवाई * नवल कथा का सृजन
हुआ।
इतनी लम्बी साहित्यिक यात्रा के बावजूद भी उनकी झोली मेंकोई औपचारिक सम्मान, सरकार की ओर से कोई उपाधि,पद आदि कुछ
नहीं आया।हां अपने पाठकों का आत्मीय स्नेह उन्हें भरपूर मिला जो किसी भी लेखक के
लिये अनमोल पूंजी होती है।
यह पाठकों का अपार प्यार ही था कि जैसे ही उनकी कोई नयी किताब बाजार में
आती, हाथोंहाथ बिक जाती। ठीक उसी तरह
जैसे अस्सी के दशक में उपन्यासकार गुलशन नन्दा की।
श्रीमद्भागवत में भी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने उद्घोषणा की है -
स्वे स्वे कर्मण्येभिरत:, संसिद्धि
लभते नर:।
और संसिद्धि मिली 1985में,1856के दुष्काल पर आधारित नवलकथा *मानवी नी भवाई* पर साहित्य जगत के सर्वोच्च
शिखर सम्मान यानि *ज्ञानपीठ पुरस्कार* के रूप में।
और इस तरह 7मई,1912में
प्रस्फुटित राजस्थान के वागड़ का वह पौधा गुजराती साहित्य का वटवृक्ष बन पीढ़ियों
को अपने सृजन की छांव देकर 6अप्रेल1989 के दिन सदा के लिए विदा ले निकल गया अनन्त यात्रा पर।
छोड़ कर अपने पीछे साहित्य रूपी अमरबूटी।
जन्म जयंती पर
शत् शत् नमन -----अभिवन्दन
~घनश्याम सिंह भाटी "प्यासा" गढ़ी (बांसवाड़ा)
Post a Comment