वागड भी हिस्सा था सम्राट अशोक मौर्य के साम्राज्य का
- डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
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सम्राट अशोक । चित्र सौजन्य: DNA India |
वागड
का इतिहास प्राय: पूर्वमध्यकाल से ही ज्ञात है मगर यह सच है कि यह पूरा प्रदेश
मौर्य सम्राट अशोक के शासनाधिकार में आता था। यह काल (272-32 ईसा
पूर्व) ऐसा काल था जबकि बौद्ध धम्म का प्रचार करना हर शासक और उसका अधिकारी अपना
कर्तव्य समझता था। 84 सिद्धों का क्षेत्र गिरनार भारतीय
संस्कृति के प्रसार का बडा केंद्र बना हुआ था। इस पहाड पर सिद्धों द्वारा
दिए गए उपदेशों का बडा महत्व था,
यही कारण है कि सम्राट अशोक के सबसे अधिक शिलालेख यहीं से मिले हैं।
यह गिरनार बांसवाडा से लगभग पांच सौ किलोमीटर है, पहले यह कम
रही होगी क्योंकि प्राकृतिक पथ ही काम आते थे।
गिरनार में अशोक ने जो आज्ञाएं शिलाओं पर अंकित करवाई, वे वागड के प्रसंग में आज तक विचारणीय बनी हैं, यद्यपि उस काल का कोई अवशेष यहां अब तक खोजा नहीं गया, मगर वागड से ही लगे शामलाजी में बौद्धकाल के स्तूप आदि अवशेष मिले हैं और ये बताते हैं कि यहां बौद्ध श्रमण प्रचार के लिए निकलते थे। इनमें यवन श्रमणों की संख्या अधिक थी, जिनका नेतृत्व धर्मरक्षित ने किया था।
अशोक का पहला शिलालेख 'समाज' की बात बताता है, इसका मतलब है किसी खास प्रयोजन के लिए जन समूह का जुडना। प्राय: तब भी मृत्यु, उत्सव आदि के लिए समाज जुडता था। यह परंपरा वागड और उससे लगे कांठल, मगरा क्षेत्र में आज भी है और आज तक 'समाज' ही कहीं जाती है।
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प्रतीक चित्र |
इनमें प्राय: पशुओं की बलि या हिंसा तक कर दी जाती थी,
भोज आदि के लिए। अशेाक ने इस बुराई को बहुत करीब से देखा और साफ कहा
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इध न किं चि जीवं आरभित्पा प्रजूहितव्यं न च समाजो कतव्यो। बहुकं हि दोसं समाजम्हि पसति देवानांर्पिप्रियो प्रियदसि राजा। अस्ति पि तु एकचा समाजा साधु-मता देवानं प्रियसं प्रियदसिनो राजो। (गिरनार शिलालेख, ब्राह्मीलिपि, पंक्ति 2, 7)
इसका आशय हे कि इस इलाके में कोई जीव बलि के लिए नहीं मारा जाएगा। न कोई समाज ही किया जाएगा। बहुत सा दोष समाज में देवानंप्रिय प्रियदर्शी राजा देखता है। फिर भी, साधुओं के बताए निश्चित प्रकार के समाज को ही देवानंप्रिय प्रियदर्शी राजा उचित मानता है।
उक्त शिलालेख में आया 'साधु' शब्द वागड के 'साध' शब्द का समानार्थी है, यह आज भी वही अर्थ लिए है, जो उस काल में था।दूसरा शिलालेख जाहिर करता है कि चूंकि वागड से होकर गिरनार रास्ता जाता था, अत: इधर कूपादि खुदवाने का कार्य सम्राट अशोक ने ही किया था, वनस्पति लगाने और वनस्पति विद्या के प्रसार का प्रबंध भी किया गया। उसके युक्त, राजुक, प्रादेशिक प्रत्येक पांच साल में इधर धर्म प्रचार के लिए निकलते थे। (श्रीकृष्ण जुगनू- वृक्षायुर्वेद, चौखंबा, बनारस, भूमिका) अशोक के इन शिलालेखों के कुछ और शब्दों पर विचार हो सकता है, मगर इस अंचल की परंपराओं का अध्ययन उचित होगा। कोशिश तो की ही जा सकती है। किसी विशेषज्ञ द्वारा वागड़ में प्राप्त प्राचीन शिलालेखो के अध्ययन की अहम ज़रूरत है।
~ डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू',
उदयपुर
लेखक, इंडोलॉजिस्ट एवं शोधकर्ता
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