चौक पर डांडा रोपने के साथ शुरू हो जाती है होली की धूम
~ अखिलेश पंडया
वागड़ अंचल में गांव हो या शहर हर जगह होली चौक पर थंब (डांडा) रोपने की विशेष परंपरा है। इसके साथ ही होली पर्व की तैयारी शुरू हो
जाती है। एक बार थंब रोपने के बाद होली पर्व मनाने तक मांगलिक कार्य नहीं होते थे।
पर अब बदलते परिवेश में यह परंपरा कुछ गांवों में ही सिमट कर रह गई है। अव्वल तो
अंचल के कई गांवों और शहरों में थंब रोपण ही बंद हो गया है। कहीं कहीं अब भी यह
परंपरा निभाई जा रही है, लेकिन थंब रोपने के बावजूद विवाह और
अन्य मांगलिक कार्यक्रम का आयोजन होता है।
होली चौक पर थंब रोपने के साथ ही होली पर्व का माहौल बन जाता है। युवतियां देर रात तक होली चौक पर होली के गीत गाती हैं तो वहीं गेर और घूमर नृत्य खेल कर भरपूर मनोरंजन करती हैं। वहीं गांव के युवा ढोल और कुंडी बजाते हैं। यह सिलसिला होली के दिन तक चलता है। हालांकि अब लोग नौकरी, व्यवसाय के लिए बाहर बड़े शहरों में रहते हैं जिससे पहले जैसी रौनक नहीं दिखाई देती।
माघ माह की पूर्णिमा को होता है थंब रोपण:
हिन्दू धर्म शास्त्रों और परंपराओं के
अनुसार फाल्गुन माह की पूर्णिमा को होली पर्व मनाया जाता है। इसके ठीक एक माह पहले
माघ माह की पूर्णिमा के दिन होली चौक पर थंब रोपे जाते हैं। इसीलिए इस पूर्णिमा को
थंब रोपणी पूनम के नाम से भी जाना जाता है। कई गांवों और शहरों में यह रस्म आज भी निभाई
जा रही है। जिसमें शहर के कुछ पुराने मोहल्लों के साथ ही कराड़ा, सरोदा जैसे गांवों में आज भी यह परंपरा कायम है। कराड़ा के परमानंद सेवक, देवजी पाटीदार ने बताया कि हनुमान मंदिर के पास पूर्णिमा पर 19 फरवरी को होली का डांडा रोपा गया।
सेमल और सागवान की लकड़ी का होता है थंब:
माघ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन गांव के
प्रबुद्धजनों की मौजूदगी में शुभ मुहूर्त में सेमल और सागवान की लकड़ी का डांडा
रोपा जाता है। जिसकी 11 या फिर 21 फीट की साईज निर्धारित है। इसके नीचे के पांच फीट तक का भाग सेमल और ऊपर
का भाग सागवान का होता है। सबसे ऊपर धर्म पताका लगाई जाती है। अब होली के दिन ही
शुभ मुहूर्त में डांडा लगाने का चलन शुरू हो गया है।
लोग बंट न जाए इसलिए थम जाते थे मांगलिक
कार्य:
होली और दिवाली बड़े पर्व माने जाते हैं।
जिन्हें सामूहिक रूप से मनाने पर ही इसकी भव्यता नजर आती है। होली के आसपास के समय
में व्यक्तिगत परिवारों द्वारा मांगलिक आयोजन रखने पर लोग बंट जाते हैं,
ऐसे में सर्वसमाज द्वारा सामूहिक रूप से पर्व मनाने का आनंद नहीं
रहता। इसलिए होली से एक माह पहले डांडा रोपने के बाद होली तक मांगलिक कार्य रोक कर
केवल होली के रस्म रिवाज ही निभाए जाते थे। अब इसमें बदलाव इसलिए भी आया है कि
पहले की तरह एक गांव और एक शहर में एक ही होली दहन की परंपरा में भी बदलाव आ गया
है। अब अपने अपने मोहल्लों और समाजों द्वारा अलग होली दहन करने का चलन शुरू हो गया
है।
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