घुमक्कड़ डायरी: वाराणसी के विश्वनाथ और उनके घाट

घुमक्कड़ डायरी में पेश है संस्कृतिकर्मी राजेंद्र कुमार पंचाल का यात्रा वृतांत
पिछले दिनों कुम्भ यात्रा के दौरान सनातन धर्म की सांस्कृतिक राजधानी वाराणसी जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । शिवास्ते संतु पन्थानः का बीज मंत्र हृदय में लेकर हर हर महादेव करते हुए तीन यायावर उत्तर प्रदेश की पावन भूमि पर विश्व के सबसे बड़े कुम्भ मेले में गए प्रथम 2 दिन की यात्रा के बाद तो साथ ही तन धूलि धुसर, मन गौरीशंकर बन गया और काशी यात्रा की ओर ले चला । 
काशी के घाटों का नज़ारा । फोटो सौजन्य: FirstPost
काशी विश्‍वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्‍ट स्‍थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।  हिन्दू धर्म में कहते हैं कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता। उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। यही नहीं, आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलायी जाती है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने का कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होने सारे संसार की रचना की। 
वर्तमान मंदिर का जीर्णोद्धार महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा सन 1780 में करवाया गया था। बाद में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा 1853 में 1000 कि.ग्रा शुद्ध सोने द्वारा बनवाया गया था.
वाराणसी या काशी या बनारस... कई नाम हैं भगवान शिव के इस नगर के । कहते हैं वक़्त के साथ मिस्त्र, रोम सब मिट गए, कई सभ्यताएँ पनपी और नष्ट हो गई, लेकिन यह दुनिया का एकमात्र ज़िंदा शहर है, जो सदियो से ही नहीं युगो से निरंतर रूप से आबाद है । सतयुग से लेकर त्रेता और द्वापर युग में इसका वर्णन है ही, आज के कलयुग में भी यहा नगर हमारे सामने है । बनारस में मुख्य मंदिर के अलावा, संकटमोचन हनुमान मंदिर, काशी के कोतवाल के नाम से विख्यात भैरवनाथ मंदिर, कबीर आश्रम जैसे विविध दर्शनीय स्थल हैं ।  पतित पावनी गंगा मैया के तट पर बसा यह शहर अपने घाटो के लिए भी मशहूर है। 

नाथोँ के नाथ काशी विश्वनाथ। फोटो सौजन्य: DharmNagri
वाराणसी में गंगानदी के तट पर स्थित एक प्रसिद्ध घाट है। इस घाट पर जाने से पूर्व हमने एक छोटी नाव कर ली , हमने कहा की हमे मणिकर्णिका घाट पर जाना है । नाविक ने हमे 15-20 मिनट की यात्रा में वहां उतारा ।

वाराणसी में बहुत सारे घाट है ।
एक मान्यता के अनुसार माता पार्वती जी का कर्ण फूल यहाँ एक कुंड में गिर गया था, जिसे ढूंढने का काम भगवान शंकर जी द्वारा किया गया, जिस कारण इस स्थान का नाम मणिकर्णिका पड़ गया।
एक दूसरी मान्यता के अनुसार भगवान शंकर जी द्वारा माता पार्वती जी के पार्थिव शरीर का अग्नि संस्कार किया गया, जिस कारण इसे महाशमसान भी कहते हैं। आज भी अहर्निश यहाँ दाह संसकार होते हैं। नजदीक में काशी की आद्या शक्ति पीठ विशालाक्षी जी का मंदिर विराजमान है।

वाराणसी के सभी घाट बहुत ही मनोरम हैं। परन्तु कुछ घाटों का पौराणिक दृष्टि से विशेष महत्व है उनमें से "हरिश्चंद्र घाट" भी उल्लेखनीय है। 

यह घाट मैसूर घाट एवं गंगा घाटों के मध्य में स्थित है। हरिश्चंद्र घाट पर हिन्दुओं के अंतिम संस्कार रात-दिन किए जाते हैं। हरिश्चंद्र घाट के समीप में काशी नरेश ने बहुत भव्य भवन " डोम राजा " के निवास हेतु दान किया थ।। यह परिवार स्वयं को पौराणिक काल में वर्णित "कालू डोम " का वंशज मानता है। हरिश्चंद्र घाट पर चिता के अंतिम संस्कार हेतु सभी सामान लकड़ी कफ़न धूप राल इत्यादि की समुचित व्यवस्था है। इस घाट पर राजा हरिश्चंद्र माता तारामती एवं रोहताश्व का बहुत पुरातन मंदिर है साथ में एक शिव मंदिर भी है। आधुनिकता के युग में यहाँ एक विद्युत शवदाह भी हैपरन्तु इसका प्रयोग कम ही लोग करते हैं। बाबा कालू राम एवं बाबा किनाराम जी ने अघोर सिद्धी प्राप्ति के लिऐ यहीं शिव मंदिर पर निशा आराधना की थी। कहा जाता है बाबा किनाराम जी ने सर्वेश्वरी मंत्र की सिद्धी हरिश्चंद्र घाट पर प्राप्त की थी ।

यहां पर कई नागा साधु महात्मा अपने पांडाल बना कर घाट पर तपस्या अभी भी करते है । ऐसे ही एक अगोरी महात्मा से मेरी भेट हुई, काफी लंबी वार्तालाप करने के बाद नागा साधुओं के विषय मे रहस्यमय बाते जानने को मिली ।
इन साधुओं के अखाड़ों में आसानी से भर्ती नही होती है यहां भी , अखाड़ों में व्यक्ति को 6 मास से 6 साल तक परीक्षा ली जाती है , उसके बाद जीते जी पिंड दान करवाया जाता है । फिर ब्रम्हचर्य की जांच हेतु लालच और लोभ में फसाया जाता है उसमें परीक्षा में सफल लगे तो अंत में शारीरिक श्रम और कठोर गुरुसेवा करवाई जाती है साथ ही व्यक्ति की IQ भी देखी जाती है तब उसे भर्ती की जाती है । 
एक साधू के साथ लेखक
कुछ अखाड़ों में ये भी नियम है खाना नही पकाते है केवल 7 घर ही भिक्षा लेते है वो नही मिली तो फिर भूखे ही रहना पड़ता है । काफी कठोर नियम है इसलिए बहुत कम ही नागा अखाड़ों में जाते है , बाकी दूध मलाई खाने मिलती है और मुफ्त का माल उड़ाने वाले साधु बनना सरल है । भले आजकल कुछ धर्मो में कठिन तपस्या की बात करते है पर इन अखाड़ों के साधुओं के बराबर तप कोई नही करता है । ये शिव से साक्षात्कार करते है । शमशान साधना करते है । जीवन को तपाया जाता है  तीर्थाटन करते है । गुरु की आज्ञा का पालन करते है फिर गुरु की आज्ञा से धर्म प्रचार करते है ।

जब शाही स्नान करते है तब शिवजी उनके अखाड़ों में साधु रूप में साथ रहते है और जब साथ मे डुबकी लगाते है तब वे (भगवान भोलेनाथ भी) डुबकी लगाते है तब शिवजी साथ रहते है  बाहर आते समय शिवजी गायब हो जाते है ।
ये नागा साधु काफी पढ़े लिखे , विद्वान, बड़े पदों पर रहे , सेवा निवृत्त हुए महान विभूति होते है । इसमें कई ब्रम्हज्ञानी होते है ।

रात्रि की यात्रा चित्रकुट को करनी थी इसलिए वाराणसी में बाबा  का इतना ही सानिध्य ले पाए । अगले दिन चित्रकुट पहुँचे । रग रग में बसे शिव बाबा के दर्शन कर -  "शिवेति द्वयक्षर नाम ।" जयते, अन्तसः उस समय मन इच्छारहित था । आराध्य देव पुतलियों पर मूर्तिमान था । "मेरा मुझ में कुछ नही , जो कुछ है सो तोर ।" अगले अंक में  चित्रकुट की यात्रा .....

~ राजेन्द्र कुमार पंचाल सामलिया , शुभ वेला पञ्चाङ्ग के संपादक , ज्योतिष मार्तण्ड

कोई टिप्पणी नहीं