लोहारिया के सीने से उभरा पवित्र गंगा कुंड अपना अस्तित्व बचाने मांग रहा मदद का हाथ
सरोवर नगरी सागवाड़ा के लोहारिया तालाब को सागवाड़ा का हरिद्वार और पूर्वज प्रदत्त सनातनी परम्पराओं की धरोहर ऐसे ही नही कहा जाताहै. तालाब के चारो ओर नगर के कई वर्गो के सनातनी देव मंदिर तो तालाब के पेटे में कूएँ एवम बावड़िया अपना इतिहास लिए आज भी खुर्दबुर्द अवस्था में मौजूद है !
जबकि तालाब के घाट चारो ओर गंगा घाट, कालिका घाट, मंगलेश्वर घाट, गणेश घाट अपनी विशिष्ट महत्ता लिए है. वहीं तालाब के चारो ओर बसी सागवाड़ा की पुरानी आबादी के जीवन का अभिन्न अंग रहा है ये तालाब. चाहे प्यास बुझाने के लिए पेयजल हो धार्मिक अनुष्ठान.
बावड़ियों में मध्यटापू में स्थित केवड़े वाली बावड़ी अति प्राचीन है वही लुप्तप्राय माना जाने वाला "गंगा कुंड" इस वर्ष तालाब रीता होने की वजह से साफ़ नज़र आ रहा है और चीख चीखकर अपने सनातनी वैभव और इतिहार की गाथा गाते हुए अपने उद्धार के लिए पुकार रहा है. लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या इस पवित्र कुंड की मार्मिक पुकार सुनने के लिए जनता, प्रशासन और जन प्रतिनिधि तैयार हैं? क्या नगर के धर्मवीर और निकाय संस्थाएँ इसे सुन रही हैं?
"गंगा कुंड" की चुनाई अभी स्पष्ट दिखने लगी है और "गंगा घांट" पर प्राचीन महादेव मंदिर की पुनर्स्थापना और जीर्णोद्धार के बाद महादेव ने इस वर्ष तालाब को इसीलिए खाली रखा मानो वे भी "गंगा कुंड के उद्धार" के लिए संकेत दे रहे हो.
सदियो पुरानी परम्पराहै कि, चारधाम की धर्मयात्राओ के पश्चात नगर के सनातनियों का सबसे पवित्र उत्सव गंगोध्यापन के कलश यात्रा इसी धर्म बिंदु से नगर शोभायात्रा को निकाली जाती है. रामनवमी, शिवरात्रि आदि अवसरो पर भी लोहारियो की लहरो और यहाँ विराजमान देवताओ को साक्षी मानकर विभिन्न आयोजन, नगर परिक्रमाएँ और यात्राएँ सम्पन्न होती हैं.
गंगोध्यापन के एक दिन पूर्व गंगा पूजन किया जाता है जिसे बागड़ी में "कूड़ो नुतरो (कूप आमंत्रण)" कहा जाता है। कुछ दशकों पूर्व जो गंगा पूजन पवित्र गंगा कुंड में संपादित किया जाता था, लेकिन इसकी अनदेखी और दुर्दशा के चलते अब मजबूरन गंगा घाट पर ही संपादन किया जाने लगा है.
गंगा कुंड को आबाद करके उसका पुराना वैभव लौटाने की सख्त ज़रूरत है। कुछ दशकों पूर्व गंगा कुंड की चुनाई तालाब के पेटे से लगभग 10-12 फीट ऊपर तक थी जो तालाब के भरे हुए होने पर भी ऊपर से स्पष्ट दिखाई देती थी।
कुंड की चुनाई ऊपर तक होने से इस कुंड के जल की पवित्रता बनी रहती थी और अमृत तुल्य इसका पावन जल तमाम दूषण-प्रदूषण से मुक्त रहता था. तालाब के बीच कुंड की ये अनोखी स्थिति का अपना वैभव था. इसी कुंड में सभी सनातनी गंगा पूजन के पश्चात कलश भरते थे. वही परंपरा कालांतर में गंगाघाट पर ही होने लगी है।
विगत कुछ वर्षो में नगर निकाय समेत जन नेताओ ने इस कुंड, घाट और तालाब के उद्धार, सौंदर्यीकरण और विकास के लिए काफ़ी वादे किए. डूंगरपुर के गेपसागर और उदयपुर के पिछोला आदि की तर्ज़ पर शहर की शान बनाने की भी चर्चाएँ हुई. लेकिन वह सिर्फ़ कोरे वादे ही साबित हुए. अपने उत्तर और पूर्व-पश्चिम में तेजी से फैलते सागवाडा शहर का ये दक्षिणी हिस्सा तमाम ऐतिहासिक-धार्मिक महत्व के बावजूद अनदेखी का शिकार है.
नगर के सनातनियों को गंगा कुंड के वैभव को पुनः स्थापित करके पुनः गंगा कुंड से गंगोध्यापन के कलश भरने की परिपाटी को पुनर्स्थापित किए जाने की महती आवश्यकता जिससे लोहारिया का वैभव पुनः स्थापित हो सके एवम सागवाड़ा का हरिद्वार और पूर्वज प्रदत्त सनातनी धरोहर की धरोहर संरक्षित हो सके। कॉन्क्रीट से सने चमचमाते विकास से मुग्ध नई पीढ़ी को उसकी विरासत से विमुख रखना अन्याय है. याद रहे सरोवर नगरी सागवाड़ा की आत्मा हैं उसके तालाब.
~ जगदीश प्रजापति, सागवाडा । एक्टिविस्ट और विचारक
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