यादों के साए में, ठेठ वागड़ी में अतीत का सफ़र कराती भोगीलाल पाटीदार की कृति ‘अणभूल्या दाड़ा’

साहित्य में संस्मरण हमें एक ख़ास दौर में, ख़ास व्यक्तियों, स्थानों, घटनाओ और जन-जीवन से रु-ब-रु कराते हैं. और यदि यह संस्मरण आपको अपनी भाषा की सौंधी ख़ुशबू में मिले तो एक अलग ही आनंद आता है.  

वरिष्ठ साहित्यकार भोगीलालजी पाटीदार चुण्डावाडा, सीमलवाडा की पांचवीं कृति चिराग प्रकाशन, उदयपुर से प्रकाशित होकर आयी है। यह कृति संस्मरण विधा में है, शीर्षक है अणभूल्या दाड़ा। श्री पाटीदार जी ने अपने जीवन के उन 12 संस्मरणों को समावेश किया है जिन्हें पढना तत्कालीन स्मरणीय  समय को साक्षात भोगने-अनुभूत करने जैसा है।

वागड़ी भाषा के वरिष्ठ साहित्यकार दिनेश पंचाल (विकासनगर) बताते हैं कि, राजस्थानी साहित्य में बहुतायत से लिखे जाने वाले साहित्य में उपन्यास, कविता, कथा, नाटक और व्यंग्य शुमार हैं।  लेकिन संस्मरण विधा में अपेक्षाकृत कम कलम चली है। ऐसे में दक्षिण राजस्थान की वागडी में इस विधा में कलम चलना बहुत महत्त्वपूर्ण है और अनुकरणीय भी। 'गोमडं ऐटली वेदना, डाकणियो, आम्बा नी हागे, खार, बेरूपो, आणूं, फैरीवाळी, किसर बा, नौकरी, वचन ना पाका, वागड़ ना रतन, हडकवा संग्रह के संस्मरणों के शीर्षक हैं। ऐसे समय में जब साहित्य सरकारों द्वारा प्राथमिकता से बाहर माना जाने लगा हो, अकादमियों में सन्नाटा पसरा हो बोलियाँ अपने अस्तित्व के लिए छटपटा रही हों।

इस कृति पर अपनी समीक्षात्मक टिप्पणी करते हुए पंचाल ने आज के साहित्यिक माहौल पर बहुत ही निर्मम बात कही है कि, परस्पर पुरस्कृत/सम्मानित होने वाले लोग/संस्थाएं इसे अनुशंसा न मानें. संस्मरण लिखने में व्यक्ति बहुत ईमानदारी से बातें और अनुभव रखता है, जिससे नाराज़गी भी झेलनी पड़ती है. लिहाज़ा यह एक जोखिम भरा साहसी काम है.  

पाटीदार जी की यह राजस्थानी कृति बहुत बड़ी संभावना बन कर अवतरित हुई है। वागड़ जैसे दूरस्थ क्षेत्र में जहां कोई प्रोत्साहन नहीं होता, ऐसे में यह घरफूंक तमाशा करना बहुत साहस का काम है। पाटीदार जी जैसे उम्रदराज साहित्यकार जिन्होंने ने स्वयं खर्च उठाकर अपनी पांचवीं कृति प्रकाशित करवाई है उनको मेरा सैल्यूट। यह उल्लेखनीय है कि आपका एक राजस्थानी बाल नाटक 'पंखेरू पीड़ा' भी प्रकाशन की प्रक्रिया में है। मेरी दृष्टि में स्वयं के खर्च से साहित्य साधना पाटीदार जी इसलिए कर पा रहे हैं क्योंकि वे किसी पुरस्कार/सम्मान की अपेक्षा नहीं रखते हैं। उनकी कृतियाँ ही उनके लिए स्वयं पुरस्कार हैं।


इस पुस्तक का ख़ास आकर्षण पन्नालाल पटेल
, ले.जनरल नाथुसिंहजी पर लिखे संस्मरण भी हैं. वही पाटीदार द्वारा लोक संस्कृति और लोक शब्दावली का भरपूर और सहज ही खुलकर प्रयोग किया है, वह नई पीढ़ी के पाठकों के लिए एक रोचक अनुभव साबित होगा.

चिराग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस संग्रहणीय पुस्तक का मोल है मात्र रु.200/ -  

-          ऋचा भावेश भट्ट | घोटाद, सागवाड़ा 

1 टिप्पणी

Unknown ने कहा…

श्री भोगीलाल जी की यह कृति संभवतया वागडी बोली में लिखा गया पहला संस्मरण है, जिसके लिए लेखक को आत्मीय बधाई दी जानी चाहिए। आज के आर्थिक युग में जहाँ हर व्यक्ति अर्थोपार्जन हेतु दौड़ रहा है तो दूसरी ओर सरकारें केवल वोट बैंक को साधने में लगी हुई हैं। साहित्य संपदाओं का इतना निरादर पहले नहीं देखा।ऐसी परिस्थितियों में भी अपने स्वयं के खर्च से साहित्य सेवा का पुनित कार्य करने वाले कलमकारों को सभी साहित्य प्रेमियों का सहयोग मिलेगा तो अन्य कलमकारों को भी संबल एवं प्रोत्साहन मिलेगा। अगर हम अपने सामर्थ्य के अनुरूप ऐसे कलमकारों की कृति क्रय कर पढ़ेंगे तो उनका व्यय पूनरभरण भी होता रहेगा और हमरी नयी साहित्यिक ज्ञान वृद्धि होती रहेगी।
-- शंकरलाल पण्ड्याअनुरागी,गिंगला (उदयपुर)