अस्सी-नब्बे के दशक के हमारे रिजल्ट के कारनामे आज के छोरे क्या जाने !
गांव के सारे बच्चों की ज़िम्मेदारी लेकर उनका भाग्य तय करने सुबह ही शहर की ओर रिजल्ट वाला अख़बार लेने निकल जाता था। उसके वापस गांव आने की प्रतीक्षा किसी सेलेब्रिटी से कम नहीं होती थी। घरवाले बाहर का लाख काम छोड़कर घर से बाहर कहीं नही जाते थे क्योंकि यही एक दिन होता जिसमें साल भर की नसीहतें याद दिलाई जाती और गलती से भी यदि मुँह से निकल जाता कि गणित का पर्चा थोड़ा सही नहीं हुआ तो माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से पहले ही घर पर परिणाम घोषित हो जाता।
रिजल्ट का दिन पढ़ने में कमज़ोर विद्यार्थियों के लिए वर्ष का सबसे छोटा दिन माना जाता था और प्रतिभाशाली बालकों के लिए बड़ा दिन। मेरे जैसे कई कमज़ोर बालक उस खास दिन 'सोशल डिस्टेंसिंग' मेन्टेन करके चलते थे, क्योंकि संभावित परिणाम हमेशा से ही घातक होते थे, जिसका वर्ष भर प्रशिक्षण चलता रहता। अख़बार आने से पहले संभावनाएं तलाशी जाती, कयास लगाये जाते ( केवल पास और फेल होने के ) भविष्य की योजनाएं बनाई जाती कि पास होने पर कौनसे स्कूल में दाखिला होगा और फेल होने पर कौनसे होटल में!! अगले स्कूल के दाखिले की फीस नहीं बताई जाती लेकिन होटल का मासिक पगार ज़रूर बता दिया जाता। कुल मिलाकर अवचेतन मन में ये भर दिया जाता कि पास हुए तो घोड़े बनोगे और फेल हुए तो खच्चर।
आखिरकार नियत समय पर अखबार विक्रेता के गांव के संपर्क में आते ही माहौल अत्यंत ज्वलनशील हो जाता, मानो वो अख़बार नहीं बल्कि एक ऐसी आग लाया है जो अगले पंद्रह दिन आपको कभी सूकून से बैठने नहीं देगी...खाना..पानी... नींद... सुख...सब कुछ हराम....
रास्ते में ही उसके द्वारा प्रथम द्वितीय और तृतीय श्रेणी के परिणाम का सुविधा शुल्क तय कर लिया जाता था। फेल और पूरक परीक्षा वालों के पैसे जीवन भर के लिए बच जाते थे। क्योंकि उनमें से कोई रिपीट करने या पूरक परीक्षा में पास होने का जोखिम नहीं लेता और न ही दुस्साहस करता। अख़बार विक्रेता मुद्दे में सावधान रहता इसलिए प्रतिभाशाली विद्यार्थियों का परिणाम पहले देखता ताकि बोहनी बढ़िया हो जाए। उसे इतना अनुभव हो गया था कि पूरक और फ़ेल वालों की शक्ल देखते ही कहता कि थोड़ी देर लगेगी। इनमें द्वितीय और तृतीय श्रेणी में पास होने वाले विद्यार्थी अपने माता पिता को बहुत धोखे में रखते क्योंकि मार्कशीट आने में पंद्रह बीस दिन निकल जाते। द्वितीय श्रेणी वाले कहते 59.90 तो होंगे ही, और आते 49.09, उसी तरह तृतीय श्रेणी वाले 44.90 कहते और आते 34.09... ये कसर मार्कशीट्स मिलने वाले दिन ब्याज सहित निकाली जाती। वो 10 वीं के परिणाम की अंतिम कसर होती।
इन सबके बीच एक बात जरूर थी, प्रतिशत ज़्यादा बनने से आत्ममुग्धता आड़े नहीं आती तो कम बनने पर हीनभावना का कोई शिकार नहीं होता। कई विद्यार्थियों को परिणाम देखने की जल्दबाजी में और पैसे बटोरने की लालच में पास दिखा दिया जाता, जिसकी पोल मार्कशीट मिलने वाले दिन खुलती।
हमारे पूर्वजों द्वारा 10वीं के 'कैलाश पर्वत' को पार करने की चुनौती को कोई बमुश्किल पार कर जाता तो कोई रास्ता ही बदल देता क्योंकि भय सृजन इसी तरह होता कि 10वीं हमारे शैक्षिक और वैवाहिक जीवन का भविष्य तय कर देगी।
आज समय अलग है, बच्चे बौद्धिक रूप से भले ही सम्पन्न हैं, लेकिन भावनात्मक रूप से विपन्न हैं। उन्हें कैलाश भी चढ़ना है और गुरु शिखर भी। उनके पास प्रबल इच्छाशक्ति भी है...संसाधन भी हैं...शुद्ध प्रवृत्ति भी है... निष्ठा भी है लेकिन पराजय सहन करने का धैर्य नहीं है... सत्य को स्वीकार करने का माद्दा नहीं है...
जाइए... नौनिहालों को प्रत्येक परिस्थिति में, हर मोर्चे पर डटे रहना सिखाइए। उसे सिखाइए कि ईर्ष्या और द्वेष से परे होकर खुशियां कैसे मनायी जाती हैं... सिखाइये उसे कि हार को कैसे पचाया जाता है...
उसके 2GB के दिमाग में 64 GB का पाठ्यक्रम मत ठूंसिये।
सिखाइये उसे कि भौतिकवाद और अति महत्वाकांक्षा के बढ़ते दबाव में अपना दम न तोड़े।
उसे 'बहादुर' बनाइए लेकिन नेपाली नहीं, क्या पता भविष्य में कोई 'ओली' उस पर अपना दावा न ठोक दे।
सितारों के आगे जहां और भी हैं.....
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