जीरो खर्च पे अपने बच्चों को सिखाएं टेराकोटा आर्ट


ढ़ेले भर का भी खर्च नहीं, बस अपनी माटी का ढेला और बन गई कलाकृति। कोरोना संकट के चलते Lockdown में वक्त निकालना जहाँ बहुत मुश्किल होता है वहीं अगर ठान लो तो यह वक्त आपके ही नहीं, बच्चो के लिए भी कुछ रचनात्मक करने का सुनहरा अवसर है !!


हम जब-जब अपनी जड़ो से, अपनी सौंधी माटी से दूरी बनाई तभी तो त्रासदियों ने जन्म लिया है. और मानव को प्रकृति व ऑर्गेनिक, सात्विक जीवन की ओर लौटने पर मजबूर किया ताकि पृथ्वी की आयु बढ़ जाये और मानव अपनी मौलिकता की ओर लौटे.

आज मैं एक ऐसी ही कला का ज़िक्र कर रहा हूँ,  जो न सिर्फ़ शुद्ध-सात्विक पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली के लिए सहायक है बल्कि प्रकृति को कोई नुकसान भी नहीं पहुंचाती. लोग सोचते हैं कि कुछ भी सीखने या कलाकारी सीखने के लिए सामग्री जुटाने का झंझट रहता है, सबसे बड़ी समस्या है... सामान कहाँ से मिलेगा? तो इसका भी ज़वाब है-अपनी माटी !! माँ प्रकृति ने हमें सर्वसुलभ भेंट दी है..  मिट्टी ! इस मिट्टी से ही काफी कुछ रच सीख सकते हो. 
और मिट्टी के लिए किसी बाज़ार या मॉल में जाने की जरूरत नहीं है. आपके आंगन या बारी या खेत-खलिहान में ही मिल जाएगी!




इसके कई फायदे हैं, मसलन इस समय छोटे मोटे आइटम बना सकते हैं. जगह भी कम घेरेगा घर में. आपको वा बच्चो को रचनात्मक करने का सुख भी मिलेगा!! सबसे बढ़िया बात ये वर्क फ्रॉम होम है और कहीं बाहर जाने की जरूरत नही. घर पर ही आंगन में बैठकर तरह-तरह  की आकृतियाँ ढाल सकते हैं.  बच्चे कारीगरी तो सीखेंगे ही, माँ प्रकृति से प्रेम करना भी सीखेंगे और नज़ाकत की कमज़ोरी से बाहर निकलकर बचपन से ही अपनी माटी से जुड़कर विभिन्न तरह के संक्रमणो से लड़ने की क्षमता भी विकसित करेंगे. 
जिन युवाओ को अपना कार्य नहीं आता है वैसे भाई इस समय अपनी खोती हुई परम्परा ओर कलाकारी को सीखकर अच्छे से समय व्यतीत कर सकते है। बच्चों को भी हम कारीगरी के प्रयोग में लगाये. क्योंकि नए दौर में हुनर ही विनर है !!  


आजकल Youtube देखकर कुछ छोटे मोटे मिट्टी की कलाकृतियों को बनाने में लगाये ताकि उनके अंदर अपने घरेलू कार्य के प्रति रुचि बढ़ेगी और उनका समय अच्छे से व्यतीत होगा, घर  में Low & Order भी अच्छा रहेगा। आप चाहे तो आस-पास के किसी कुम्भकार बंधू से भी काफी कुछ सीख सकते हैं.

बच्चों को सीखने की जिज्ञासा हो तो मात्र एक शिवपिंड यानि "लुइये" कि जरूरत है। बनाये, बिगाड़े ओर सीखे. फिर दुबारा शिवपिंड बनाकर दूसरे दिन वहीं मिट्टी दी जा सकती है. इसकी ख़ूबसूरती ये है कि आपको निरंतर सुधार करने और अभ्यास का नायाब मौका मिलता है. वह भी उसी माटी से, मतलब कोई बर्बादी नहीं !


आप ने विश्व प्रसिद्ध मोलेला की टेराकोटा आर्ट का नाम तो सुना ही होगा! राजसमंद जिले के मोलेला गांव के कुम्भकारो ने अपनी इसी कला के दम पे देश विदेश में नाम और दौलत कमाई है. विख्यात फिल्मकार मणि कौल ने इस कला पे एक डॉक्युमेंट्री भी बनाई है. और वहाँ के कलाकारो ने राष्ट्रपति पुरस्कार समेत कई अवार्ड भी जीते हैं.  

उसी मोलेला की तर्ज पर हमारे वागड़ के बंधू भी कुछ अच्छा कर सकते है. मोलेला और वागड़ की मिट्टी में भी कोई ज्यादा फर्क नहीं है. इस के अलावा गणेशोत्सव और दशामाता व्रत के दौरान भी हम वागड़ में स्थानीय स्तर पर विशुद्ध मिट्टी की ऑर्गेनिक प्रतिमाएँ बना सकते हैं. क्योंकि आजकल सरकार,पर्यावरणविद और जागरुक लोग पीओपी व केमिकल मटेरियल व कलर्स से बनी प्रतिमाओ से आज़िज़ आ चुके हैं! लिहाज़ा इस क्षेत्र में भी प्रचुर सम्भावनाएँ हैं.


कुम्भकार बंधू भी अपने बच्चों में अपनी इस कला और विरासत को जागृत करने और मिट्टी कार्य के सँरक्षण व अपने पैतृक कार्य के प्रति प्रेम पैदा करने का प्रयास कर सकते हैं. इस लॉकडाउन के समय में इस हुनर को कम से कम एक एक्स्ट्रा आर्ट के रूप में तो अपना ही सकते हैं. इसी बहाने वागड़ भी मोलेला की तरह टेराकोटा कला का एक अहम केंद्र बन सकता है.

लेखक: जगदीश प्रजापत, सागवाड़ा 
सारे फोटो प्रजापति समाज के एक शिक्षक एवँ  बच्चो के हैं, जो अंग्रेजी मीडियम स्कूलो में अध्ययनरत हैं. 

2 टिप्‍पणियां

Newsdiary ने कहा…

बहुत ही अच्छा कदम है अपनी एक संस्कृति और एक कला है जिसे अपने बच्चों को आना ही चाहिए👍🙏🙏🙏🙏👏👏👏

Unknown ने कहा…

सही है सबको यह मेहनत करनेवाले होंगे वह ही आलसी नहीं करेंगे कितना भी बोलते हैं भैजै नहीं बैठता है