धौलागढ़ यानी ट्रेकिंग के एडवेंचर के साथ सदियों से धूणी रमाये सदाशिव से साक्षात


अगर आपका मन मलंग होकर आध्यात्म के आनंद के साथ ट्रेकिंग का भी लुत्फ़ उठाना चाहे तो? तो कहीं जाने की ज़रूरत नहीं, हमारे वागड़ में ही इसकी व्यवस्था है!!
धौलागढ़ धुणी का पहाड़ और उसका दुर्गम पथ
यूँ तो शिव का वास कैलाश में  माना जाता है किन्तु हिन्दुस्तान का शायद ही कोई गाँव हो जहाँ शिवाला न हो। शायद ही कोई नदी हो जिसके तट पर कोई शिवाला न हो। शायद ही कोई संगम हो जहाँ भगवान भोलेनाथ धूनी रमाये विराजमान नहीं हो। और शायद ही कोई धूनी हो जहाँ  शिव साधना न हुई हो।

शिव जितने रौद्र हैं उससे कई गुना अधिक सहज सरल और आशुतोष भोले। बस थोड़ी सी श्रद्धा, भक्ति का मक्खन लगा दिया कि पिघल गये बरफ से पानी की तरह। मनोच्छित वर पाने कुँआरी कन्या से लेकर सिद्धि पाने हेतु संत तक सब इनके साधक हैं। आम जन अपनी सामर्थ्य  के अनुसार सोलह  सोमवार, मंशाव्रत चौथ से लेकर रूद्राभिषेक कर अपनी श्रद्धा अभिव्यक्त करते हैं तो ऋषि मुनि गुहा-कन्दराओं अथवा दुर्गम पर्वत शिखरों के गहन एकान्त में धूणी लगाकर सिद्धि प्राप्ति हेतु आसन जमाते अनवरत साधना करते हैं।
ऊंचे पहाड़ पर धुणी व मंदिर
बेणेश्वर से आधा कोस दक्षिण पश्चिम में माही के तट पर आदूदरा नामक स्थल पर अतिप्राचीन वाल्मीकि धूनी, बड़लिया (डूँगरपुर) धूणी, लसाडा, कोहाला सहित कितनी ही धूणियाँ आज भी तपस्वियों की उग्र साधना की साक्षी हैं।

ऐसी ही एक धूणी पर आज आपको ले चलता हूँ, जहाँ पहुँचना कुछ दुर्गम अवश्य है किन्तु वहाँ पहुँकर शान्ति और आनन्द की जो अनुभूति होती है उसे ह्रृदय की भीतरी गहराई तक अनुभूत किया जा सकता है, शब्दों में अभिव्यक्त  नहीं।
तो चलिये, चलते हैं  मेवाड़ के छप्पन और वागड़ की सीमा के संधि प्रदेश पर सजग प्रहरी की भाँति सीना ताने गर्व संसार उठाए आसमान से बाते करते धौलागढ़ पर। यहाँ अवस्थित है हजार वर्ष पुरानी धूणी- धौलागढ़/धौलागिरि धूणी !!
धुणी के भीतर का नज़ारा
आसपुर से उदयपुर मार्ग पर जैताणा तक पहुँचते पहुँचते ही सीधे हाथ की तरफ सामने अरावली की श्रृंखला में एक ऊँचा सा पर्वत शिखर आपकी दृष्टि को सहज ही आकर्षित करता है। दूर से उसके शिखर पर दृष्टिगत होते हैं धवल बर्फ के ढ़ेर से दो बिन्दु, और आपका मन मचलने लगता है उस तक जाने, उस पर चढ़ इठलाने को। किन्तु आपकी यात्रा आपको रूकने की इज़ाज़त नहीं देती और आपके मन की मन ही में रह जाती होगी।
 बहुत कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी होता रहा, एक दो बार नहीं, बरसों बरस। तर आखिर एक दिन मन नहीं माना और ले ही चला वहाँ जहाँ सदियों से समाधिस्थ हैं शिव और धूनी रमा रहे हैं उनके साधक। तो आइये चलें वहाँ।
धुणी के पास शिवलिंग
राज मार्ग पर शेषपुर मोड़ पर उतरकर  किसी स्थानीय वाहन से शेषपुर, धौलागढ़ खेडा़ वहाँ  से लगभग तीन किमी दूर कैनोर गाँव। यहाँ से एक-डेढ़ किमी और मैदानी पद यात्रा फिर चढाई। (आपका स्वयं का वाहन है, तो तलहटी तक वाहन जा सकता है) कैनोर गाँव के छोर पर अवस्थित है धौलागढ़ मठ। यहाँ रहते हैं वर्तमान मठाधीश। चाहे तो उससे मिलकर ऊपर के लिये आवश्यक साधन सुविधा व जानकारी ली जा सकती है
      तो अब शुरु होती है चढाई, धौलागढ़ गिरि की। लगभग ग्यारह सौ फुट की खडी चढाई जिसे चढने के लिये लगभग ढाई कि मी लम्बा कच्चा मार्ग है। सफेद पत्थरों वाली घुमावदार खडी पगडंडी पर ग्यारह मोड, हर मोड जैसे रुककर आपकी साँसों का हाल पूछता हो। लेकिन उससे साथ बढती ऊँचाई और सुदूर के नजारे जैसे नयी स्फूर्ति का संचार करते हैं। किसी किसी मोड पर तो चढाई इतनी सीधी कि साँस लेते फेफड़े फटने को हों। आँखे उबल सी पडती हैं। पर, बस! ठहर कर दम साधिए और बढ़ चलिये। कुल जमा दो घडी की तकलीफ है, उठा लीजिये।
कल्कि अवतार की प्रतिमा
अब हम आ पहुँचे  धौलागढ़ के शिखर पर। यहाँ पहुँचते ही सारी थकान पर भर में ही जाने कहाँ चली जाती है। प्रकृति का अन्तहीन विस्तार, अतुलित वैभव मन को इतना  आह्लादित कर देता है कि हम हम में ही नहीं रहते, खो जाते हैं उस अनन्त के विस्तार में। अद्भुत शांति, अरा़वली की सघन हरितिमा से आच्छादित चोटियाँ, दूर बहती सोम की रजतवर्णी धारा, सोम कमला आँबा की हिलोरें लेती जलराशि ....इनके बीच समाधीस्थ धौलैश्वर शिव... साक्षात् कैलाश दर्शन.... । मंदिर का जीर्णोद्धार महंत शंकरगिररि के काल में वर्ष 1990-96में  कराये जाने का उल्लेख मिलता है। प्रत्यक्षतः दुर्गम और एकांत प्रतीत होने वाले इस स्थान के प्रति लोगो की श्रद्धा की अभिव्यक्त करती हैं मंदिर के मण्डप में झूलती घण्टियाँ। लगभग सौ से अधिक संख्या में इन घंटियो का समवेत निनाद जब हवा पर तैरता है तो कानों में अमृत घोलता है।
धुणी पर स्थित प्राचीन शिलालेख
      शिवालय के ठीक सामने अवस्थित है नाथ संप्रदाय के किसी योगी की धूणी। लोगो के अनुसार यह गोरख नाथ की तपःस्थली है किन्तु इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है। हाँ, यह सच है कि यह उज्जैन के जूना अखाड़ा से सम्बद्ध नाथ संप्रदाय की धूणी है जिस पर क्रमशः अघोरगिरि, माधुगिरि, अमरगिरि, सेवागिरि, लहरगिरि, गंगाबेन, लालगिरि.. शिवानन्द(वर्तमान) आदि महन्त हुए हैं।
धूणी के पास ही ध्यान हेतु आसन है जिसके समक्ष एक शिलाखण्ड पर अर्धा सहित शिवलिंग, चरण चिन्ह, तथा कमलपत्र की आकृति अंकित शिलालेख है, इसमें से लिंग विद्यमान नहीं है केवल अर्धा ही शेष है। लेख से संवत तो स्पष्ट पढ़ने में नहीं  आता किन्तु लिपी से लगभग उन्नीसवीं सदी का प्रतीत होता है। (यहाँ केनोर के रा उ प्रा वि. मे कार्यरत, जैताणा  के शिक्षक श्री ओमप्रकाश गर्ग बताते हैं कि लगभग 450 मी. लम्बे, 350 मी. चौडे़ तथा 750 मी ऊँचे धौलागढ़ को पाँच टेकरियों में बाँटा गया है। पहली टेकरी है धुँधल माल। यहाँ धुला मीणा ने कुष्ठरोग रोग से मुक्ति हेतु तपस्या की थी। दूसरी है निष्कलंक टेकरी जिस पर संत मावजी ने तपस्या व ग्रंथों की रचना की। तीसरी अम्बा टेकरी  है जिसपर विराजमान देवी अम्बा इसकी रक्षा करती है। चौथी टेकरी दत्तात्रेय की तपोभूमी और पाँचवी अघोरी /गोरखनाथ की धूणी है। यहाँ वर्ष में दो बार क्रमशः  वैशाख पूर्णिमा व शीतला सप्तमी पर मेला भरता है)
अपने मस्त अंदाज़ में धुणी की ओर बढ़ते लेखक घनश्याम भाटी
 धूणी के  ठीक पार्श्व में भगवान निष्कलंक  अवतार कल्कि का मंदिर है जिसमें एक फुट ऊँची अश्वारूढ कल्कि अवतार की श्याम वर्णी प्रतिमा है। वि. सं. 1789 (ई.सन् 1732 लगभग) में संत मावजी बेणेश्वर छोड कर यहाँ आये और जीवनपर्यन्त यहीं साधना की।
     वर्तमान में पेयजलापूर्ति हेतु पाईप लाईन, बिजली, भोजन व विश्राम हेतु कक्ष जैसी मूलभूत सुविधा भी उपलब्ध हैं। एकबार  यहाँ पहुँच गये तो मन यहीं का होकर रह जाता हैन वर्तमान की कोई चिंता न भव का कोई भय। बस! निर्भयनिश्चिंत...केवल शिवमय.... .... .... ...


~ घनश्याम सिंह भाटी, गढी  | शिक्षक एवँ इतिहासकार

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