राणा प्रताप के सिसोदिया वंश और सिसोदा गांव की कहानी


हिंदवी सूर्य के नाम से विख्यात प्रात: स्मरणीय महाराणा प्रताप को कौन नहीं जानता? जिनके शौर्य और मातृभूमि से प्यार से हमारे स्वतंत्रता सेनानियो ने भी प्रेरणा ऊर्जा पाई थी.  उन्ही राणाजी के सोसोदिया कुल और कुल के मूल गाँव सिसोदा पे रोशनी ड़ाल रहे हैं मशहूर इंडोलॉजिस्ट डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू’.  
फोटो: राजा रवि वर्मा द्वारा बनाई महाराणा प्रताप की पेंटिंग वाया Wikipedia

गांवों ने कई कुलों को पहचान दी है। जातिगत अटकें भी उनके मूल निवास के गांवों के साहचर्य को पहचानने में सहायक रही है। मेवाड़ का 'सिसोदा' अथवा 'शिशोदा' ऐसा गांव है जहां से जो परिवार निकले, वे 'सिसोदिया' कहलाए। सिसोदिया परिवार देश भर में फैले हुए हैं। 

न केवल राजपूतों में बल्कि अन्‍य कुल भी सिसोदिया अथवा शिशोदिया के रूप में पहचाने जाते हैं। वर्तमान में राजसमंद जिले में नाथद्वारा से केलवाड़ा के पुराने मार्ग पर यह गांव अरावली की पहाडि़यों में आबाद है और बहुत पुराना गांव है। मेवाड़ का सिसोदिया गुहिलोत राजवंश यहीं से उठा है। यहीं के हम्‍मीरसिंह ने अलाउद्दीन ख़लजी के काल में मेवाड़ के गौरव को पुन: लौटाने का सार्थक प्रयास किया। हम्‍मीर बहुत पराक्रमी सिद्ध हुआ, उसके पराक्रम के चर्चे उसके अपने जीवनकाल में ही लोकप्रिय हो गए थे क्‍योंकि उसने मूंजा बलेचा जैसे इच्‍छाजीवी को शिकस्‍त दी। मारवाड़ से गुजरात जाने वाले विषम पहाड़ी मार्ग पर हम्‍मीर ने अपनी सिंह जैसी पहचान बनाई, उसने साबरकांठा और झीलवाड़ा पर अपना दबदबा बनाया। इसी कारण उसे कुंभलगढ़ की 1460 ई. की प्रशस्ति, एकलिंगजी मंदिर के दक्षिणीद्वार की 1495 ई. की प्रशस्ति सहित अनेक ग्रंथों में उसे 'विषमघाटी प्रौढ़ पंचानन' कहा गया है।


सिसोदा में इस वंश के प्राचीनकाल में बसे होने के प्रमाण के रूप में वर्तमान में बाणमाता (बायणमाता) मंदिर है। यह सिसोदिया वंश की कुलदेवी मानी गई है जो बाण आयुध का दैविक स्‍वरूप है। चारभुजा मंदिर भी उसी काल का माना जाता है किंतु प्राचीन दुर्ग का कोई प्रमाण नहीं मिलता। हां, पहाडि़यों को खोजने की जरूरत है। यहां के निवासियों को इस बात का गौरव है कि मेवाड़ को सिसोदिया जैसा सम्‍मानित राजवंश इसी धरती ने दिया मगर, सिसोदियो ने बाद में इस गांव की ओर रुख नहीं किया।

वजह थी, महाराणा भीमसिंह के काल में यह गांव 1818 ई. में चैत्र कृष्‍ण पंचमी के दिन चारण कवि किसना आढ़ा को बतौर जागीर भेंट कर दिया गया था। किसना आढ़ा ने यहां से गुजरते हुए भाणा पटेल से कहा कि वह उनका हुक्‍का भर दे। भाणा ने कहा कि वे कौनसी जागीर जीतकर आ रहे हैं। इस पर आढ़ा ने कहा कि वह जल्‍द ही बताएंगे कि जागीर जीती कि नहीं। बाद में जब उनकी सेवा से प्रसन्‍न होकर महाराणा भीमसिंह ने कुछ मांगने को कहा तो आढ़ा ने सिसोदा मांग लिया। महाराणा इसके अपने पूर्वजों का प्रतिष्ठित निवास मानकर खालसे ही रखना चाहते थे। आढ़ा के रुठकर पांचेटिया गांव चले जाने पर महाराणा ने पत्र भेजकर उनको मनाया और सिसोदा गांव भेंट किया। आढ़ा ने इस पर गीत रचा: 

कीजै कुण मीढ न पूजै कोई, धरपत झूठी ठसक धरै।
 
तो जिम भीम दिये तांबापतर कवां अजाची भलां करै।।
पटके अदत खजांना पेटां देतां बेटां पटा दियै।
 
सीसो
दौ सांसण सीसोदा थारा हाथां मौज थियै।।

किसना आढ़ा कर्नल जेम्‍स टॉड का भी निकट सहयोगी रहा। टॉड के हस्‍तक्षेप से ही उसको इस गांव का पक्‍का पट्टा मिला था। किसना आढ़ा को भीम‍विलास काव्‍य ही नहीं, 'रघुवर जस प्रकाश' जैसा ग्रंथ रचने का श्रेय भी है जिसमें डिंगल के सैकड़ों गीतों के उदाहरण के रूप में रामायण की कथा को लिखा गया है।
बाद में, किसना के पुत्र महेस आढ़ा की शादी में महाराणा जवानसिंह ने गज से सिसोदा की यात्रा की... और रावले के पास हाथी बांधने के लिए कुंभाला गाड़ा। महेस की आशियाणी पत्‍नी ने सिसोदा में बावड़ी बनवाई। सिसोदा का मंदिर भी बनवाया। महेस की स्‍मारक छतरी वहां खारी नदी के किनारे रावला रहट के पास बनी है।

हां, महाराणा हम्‍मीर से जुड़ा स्‍थान तलाशना बाकी है। कभी सिसोदिया शासक अपने दान, अनुदान अग्रहार को 'सिसोद्या रो दत्‍त' ही कहते थे जो इस गांव की स्‍मृति से जुड़ा हुआ माना जाता था। और भी कई बातें सिसोदा के साथ जुड़ी हुई है। यहां आकर बाणमाता सहित चारभुजा और भैरूजी के दर्शन तो होते ही हैं, एक गौरवशीली अतीत को आत्‍मसात करने का अवसर भी मिलता है। लौटते हैं तो नजर उन पहाडि़यों पर जरूर पड़ती है जो इन दिनों हरियाली की चादर ेढ़े हैं, कभी इन्‍हीं घाटियों में लक्ष्‍मणसिंह, अरिसिंह और हम्‍मीरसिंह तथा उनके सैनिकों के अश्‍वों की टापें गूंजती थीं...। 

डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू

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