सलूंबर की सही और सिक्का


मेवाड़ रियासत में सलूंबर का ठीकाना प्रथम श्रेणी चुडावत सामंतों का रहा है। यह ठिकाना मांझल रात में ब्‍याहकर आई उस हाड़ा रानी के लिए याद किया जाता है जिसने छिन्‍नमस्‍ता होने से गुरेज नहीं किया। बरात लौटी और सुबह ही पति चुंडावत सरदार के पास युद्ध का बुलावा आ गया। वह प्रिया से मिलन का ख्‍वाब संजोये हुए था।

रानी ने यह भांप लिया। उसने कर्तव्‍य को शीर्ष प्राथमिकता देते हुए पति को रण में जाने को कह दिया। जंग जीतने घोड़े के पांव महल के बाहर पड़े... मगर रास्‍ते में ही चुंडावत सरदार ने अपने सेवक को बुलाया और कहा कि मालूम नहीं जीयें कि मरें, जाओ और हाड़ा रानी से कोई निशानी लेकर आओ। 
रानी यह संदेश पाकर क्‍या देती, उसने तलवार उठाई और अपना ही सिर काट दिया। सेवक ने बतौर निशानी सरदार को जब नव परिणिता का सिर सौंपा - 
मिलन में जुदाई, जुदाई में मरण 
कहो पीड़ का क्‍या होगा
जब दरख्‍त ही खुद जल जाए
पंछी के नीड़ का क्‍या होगा ??
सलूंबर उस रावत कृष्‍णदास के लिए भी जाना जाता है जिसने महाराणा उदयसिंह के निधन पर, होली, 1572 की सुबह जगमाल को गद्दी से उतारकर ज्‍येष्‍ठ पुुत्र प्रतापसिंह का राजतिलक करने की पहल की और वंश-कुल से लेकर मेवाड़-मुगल संघर्ष के दौर में प्रताप के नेतृत्‍व में यकीन किया तथा अपनी ओर से प्राणपण से सहायता का भरोसा, ऐतबार दिया... ।
पहले स्‍वाधीनता संग्राम, 1857 ई. के क्रांतिचेता तात्‍या टोपे ने यहां आकर रावत केस‍रीसिंह को अंग्रेजों की कूटनीति का खुलासा करते हुए क्रांति की सफलता के लिए अग्रगामी होने का आह्वान किया।

मेवाड़ रियासत की ओर से जारी किए जाने वाले ताम्रपत्रों में शीर्ष पर 'सही' लेखन का अधिकार सलूंबर के पास सुरक्षित था। इसी सम्‍मान के फलस्‍वरूप इस ठिकाने को अपने क्षेत्र में ताम्रमुद्रा प्रचलित करने का अधिकार भी था। यही पर टकसाल थी। बहनजी डॉ. विमला भंडारी का मत है कि वर्तमान में पासवान हवेली के पूर्व में यह टकसाल थी। एक आना यहीं पर ढाला जाता था और सलूंबर के ढींगला के नाम से व्‍यवहार में था। तेबीसवें रावत पद्मसिंह ने पद्मसाही नामक पैसा चलाया। यह टकसाल 1870 तक निरंतर रही। (सलूंबर का इतिहास, पृष्‍ठ 14)
हाल ही अहमदाबाद निवासी मित्र Sameer Panchal ने एशियन केटलॉग् ऑफ कॉइंस का हवाला देते हुए सलूंबर की मुद्रा की तस्‍वीर भेजी। इसको पई या पाई कहा जाता था। उनका कहना है कि पाई नामक ताम्रमुद्रा यह 1860 से लेकर 1885 तक ढाली गई या प्रचलन में रही। यूं तो मेवाड़ में भींडर ठिकाने की भी ताम्रमुद्रा रही मगर सलूंबर का खास महत्‍व इस अर्थ में है कि यह मुद्रा बड़े क्षेत्र में प्रचलन में रही और लंबे समय तक चली। अब तो श्री भरत कुमार सोनी जी ने यह सिक्का बतौर उपहार मुझे भेजा है। 
हालांकि मुझे इस इलाके से क्षत्रपों का एक मोटा तांबे का सिक्‍का भी मिला है जो लंबे समय तक प्रचलित था। श्री समीर की सूचना पाकर अच्‍छा लगा कि इन दिनों जिस सलूंबर में मैं अपनी शैक्षिक सेवाएं दे रहा हूं, वहां के इस अल्‍पज्ञात, जलधाराओं की रचना जैसे सिक्‍के के दर्शन हो गए। श्री समीर व सोनी जी को धन्‍यवाद और हां, मित्रगण भी देखें और पाई की इस इकाई सूचना को दहाई करने को आगे आएं...।


डॉ. श्री कृष्ण जुगनू, इंडोलॉजिस्ट, इतिहासकार एवँ शिक्षक

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