वागड़ के लिए प्रासंगिक है प्रकृति प्रेम के साथ अहंकार विसर्जन का पर्व-अन्नकूट महोत्सव

~राजेंद्र कुमार पंचाल

कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को अन्नकूट का उत्सव देश भर में धूमधाम से मनाया जाता है । 
कार्तिकस्य सिते पक्षे अन्नकूट समाचरेत ।गोवर्धनोत्सव चैव श्री विष्णु प्रियतामिति।। 
गोवर्धन पर्वत उठाते श्रीकृष्ण । चित्र: ISCHON
उत्तर भारत के अधिकांश घरों में इस दिन गोबर व लकड़ी का गोवर्धन बना कर पुष्पों से सुसज्जित कर षोडशोपचार पूजन करते है , साथ ही गौ माता की पूजा करते है तथा रात को गाय माता से उपमर्दन करवाया जाता है । इस दिन यथा योग्य छप्पन व्यंजन बना कर भगवान को भोग लगाये जाता है । कही कही यह उत्सव मन्दिरों पर सामूहिक रूप से किया जाता है । मन्दिर में छपन्न भोग लगाए जाते है । फिर भक्तों को प्रसाद वितरण किया जाता है ।

इस महोत्सव के अनुसार द्वापर युग में व्रज प्रदेश में भगवान श्री कृष्ण ने इस नई परम्परा का प्रारम्भ करना सिखाया था , जिसमें पहली बार गाय और गोवर्द्धन की पूजा प्रारम्भ करवाया था । इससे पूर्व कार्तिक प्रतिपदा को इन्द्र की पूजा की जाती थी । 
वागड़ में अन्नकूट का एक नज़ारा
कृष्ण के इस नवीन बदलाव के पीछे दो उद्देश्य थे । पहला इन्द्र के अहंकार का नाश और दूसरा प्रकृति के प्रति कृतज्ञता के दर्शन कराता है । परिणाम हुआ की इन्द्र कुपित हो गया । उसके अहंकार को चोट लगी । 
होता यही है जब कोई क्रांतिकारी व्यक्ति समाज मे बदलाव लाता है तब रूढ़िवादी लोग इसे स्वीकार नही करते है , वह अहंकारी लोगों को नही पचता है । कुछ ऐसा ही हुआ व्रज में । इन्द्र ने मूसलाधार बारिश कर दी । 
तब इस गोवर्द्धन को अँगुली पर उठा कर इन्द्र की प्रलयकारी वर्षा बेकार कर दी । इन्द्र ने सारा जोर लगा दिया , थक कर इन्द्र को बैठ जाना पड़ा , इंद्रदेव का अहंकार चला गया । कृष्ण से माफी माँगी । 
स्वामीनारायण मंदिर कालूपुर, कर्णावती में अन्न्नकूट महोत्सव के दौरान भोग की एक तस्वीर : BAPS 
तब से गोवर्द्धन और गाय की पूजा का प्रारम्भ अनवरत हुआ । अन्नकूट मनाया जाने लगा । भगवान ने इंद्र को माफ किया ,गौ माता प्रसन्न हुई भगवान का अभिषेक किया और गोवर्धन भी भगवान के इस नवीन कृत्य से द्रविभूत हो कर बह चले , उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। तब भगवान ने कृपा कर उस पर करकमल उस पर रखा, तब से गोवर्द्धन की महिमा बढ़ गई । और उस गोवर्द्धन की खुशी का ठिकाना न रहा तब से अन्नकूट मनाया जानें लगा ।
इन परम्पराओ का निर्वहन अब धीरे धीरे लुप्त होता जा रहा है परंतु फिर भी ये पौराणिक कथाएँ हमें प्रकृति प्रेम के साथ पुरानी रुढियों को तोड़ कर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है । 
दिवाली पर बडौदिया के विश्वकर्मा मंदिर में लगे छप्पन भोग। फोटो: कमलेश शर्मा

आज के संदर्भ में हम प्रकृति प्रेम भगवान श्री कृष्ण से सीख सकते है । गोवर्द्धन तो प्रतीक है पर पहाड़ों के बिना हमारा जीवन व्यर्थ है । पहाड़ काटे जा रहे है । पहाड़ों के साथ खिलवाड़ हो रहा है । ये छोटे बड़े सभी पर्वत प्रकृति का श्रंगार है । पहाड़ों से वर्षा होती है , पहाड़ों से वन पनपते है । इन पहाड़ों से भारत मे हजारों नदियां निकलती है जो हमें शुद्ध जल देती है । इनके प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष  कई लाभ है । 
दुर्भाग्य है की हम पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ा कर इन पहाड़ों पर कूड़ा कचरा और प्लास्टिक फैला रहे है , अतिक्रमण कर रहे है । आधुनिक मशीनों से काट कर समतल कर रहें है ।  
गोवर्द्धन पूजा से हमें स्वच्छता और प्रकृति प्रेम का दिव्य संदेश मिलता है इस अन्नकूट पर्व के पीछे छिपे रहस्य को समझना होगा । 


~राजेंद्र कुमार पंचाल 
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