दम तोड़ रही है वागड़ के दीयो की लौ !
- फोटो फीचर: मुकेश द्विवेदी
वागड़ में कुम्भकार की हस्तकला का धीरे-धीरे विलुप्त होना सिर्फ़ उनके लिए नहीं, पूरे समाज के लिए चिंता का विषय है. इसे आप और हम मिलकर बचा सकते हैं!

बनाकर दीये मिट्टी के, ज़रा
सी आस पाली है,
मेरी मेहनत ख़रीदो लोगों, मेरे घर भी दीवाली है.
मेरी मेहनत ख़रीदो लोगों, मेरे घर भी दीवाली है.
कुम्हार समाज के लोगो द्वारा मिट्टी के बर्तन, दीये, तवे बनाने की कला धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। जिले के सागवाड़ा के टामटिया, वरदा, गामडा ब्राह्मणिया, डेचा
शिवराजपुर, और पाडवा में भी बड़ी संख्या में कुम्हार इसी से आजीविका निर्वहन करते है एवम अन्य गांवों में यह कार्य जरूर हो रहा है परंतु अन्य जगहों पर इक्का-दुक्का ही इस कार्य मे लगे हुए है।
दीपावली पर इन दियों को
पहली पसंद एवम धार्मिक रूप से भी खरीदा जाता था। परंतु आधुनिकता की दौड़ में
इलेक्ट्रिक सीरीज, चाइना
निर्मित दियो ने भी इस कला पर चोट पहुँचाई।
इस कार्य मे उपयोग आने वाली मिट्टी (काली) भी दुर्लभ होती जा रही है और जिनके खेतो में यह मिट्टी होती है उन्हें 3000 रुपए देने होते है वहां खुदाई करने के बात ट्रेक्टर से लाने का किराया 2000 रुपये तक लग जाता है। उसके बाद इनको बनाने, सूखाने, अलाव में पकाने, रंगने जैसी लम्बी चौड़ी प्रक्रिया में जो मेहनत व समय लगता है वह अलग ।
समाज के युवा इस कार्य से विमुख होते जा रहे है क्योंकि जितना परिश्रम लगता है उस एवज में पैसा नही मिलता साथ ही ग्राहक मोल-भाव करके और सस्ते में चाहता है साथ ही युवाओं का रोजगार के लिए कुवैत, कतर, दुबई, बहरीन जैसे खाड़ी देशों में पलायन भी अहम है।
माटी के दीयो की बुझती लौ से ना सिर्फ़ इस कला के खत्म के खत्म होने का खतरा है, बल्कि चाइनीज दीयो, झालरों, और लाइट सीरीज के प्रति हमारे मोह से वागड़ और देश की अर्थव्यवस्था और पर्यावरण को भी गहरा आघात लगता है.
आओ हम मिलकर इस ग्रह उद्योग को जिंदा रखने में सहयोग करे और इनके बने हस्त निर्मित दीयों से ही दिवाली मनाएँ, ताकि उनकी दीवाली भी जगमगाए. और वायरल वागड़ की ‘चाइना नहीं, आपड़ा भाईना दीवा’ मुहीम के साथ जुड़ें. इस संदेश को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों में प्रसारित-प्रचारित करें.
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