‘दर्शन दो यदुपति रघुराय’ ! भीलूडा सरकार रघुनाथजी
जन-जन की आस्था के केंद्र
श्रीराम से वागड़ धरा भी अभिभूत हुई है. भगवान श्रीराम के प्रति अपार श्रद्धा के
चलते राजस्थान का यह दक्षिणांचल भी उनके मंदिरों के जरिए पावन हुआ है. एक ऐसा ही
मंदिर है भीलूड़ा का रघुनाथजी मंदिर.
डूंगरपुर ज़िले के बाँसवाड़ा-डूंगरपुर मार्ग पर
सागवाड़ा से पाँच किलोमीटर दूर स्थित भीलूड़ा गांव की ख्याति यहाँ के रघुनाथजी के
मंदिर के लिये है। इस मंदिर की खास विशेषता है 15वीं सदी की भगवान श्री राम ‘रघुनाथजी’ की अलौकिक प्रतिमा। यह प्रतिमा बेजोड़
वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। इस मूर्ति के नीचले भाग में वि.सं.1597 (ई.स.1540) का लेख महारावल पृथ्वीराज के काल का अंकित है।
जनश्रुति के अनुसार यह प्रतिमा डूंगरपुर के एक अंधे सोमपुरा (सलाट) ने बनायी थी।
मंदिर के गर्भगृह में ऊंचे पावासन पर अवस्थित रघुनाथजी की भव्य प्रतिमा काले पत्थर (स्थानीय पारेवा पत्थर) से बनाई गई है। प्रतिमा के एक बांये हाथ में धनुष व दाये हाथ में बाण है। पीठ पर धारण किये तरकश में भी बाण लगे हैं। चरणों में दाहिनी ओर लक्ष्मण एवं बाँयी ओर सीताजी खड़ें है। मुख्यतः रामदरबार में लक्ष्मणजी व सीताजी की प्रतिमा समकक्ष ही होती है। परन्तु यहाँ अनुपात में दोनों ही बहुत ही छोटी है। रामजी की प्रतिमा त्रिभंगी है, अर्थात् कमर से झुकी हुई। ऐसी प्रतिमा कही ओर नही है। रघुनाथजी की इस प्रतिमा में मूंछ अंकित है जो राजा के रूप को प्रदर्शित करती है। अब इसे राम-सीता-लक्ष्मण कहे या कृष्ण-राधा-बलराम। यदि श्री राम का वनवासी रूप होता तो वे जटाधारी होते। रघुनाथजी की यह प्रतिमा श्यामरंग के पाषाण की बनी हुई है सामान्यतः रामदरबार श्वेत पाषाण में ही निर्मित होते हैं। प्रतिमा के दाहिने पांव का अंगुठा खण्डित हैं। हिन्दू शास्त्र में खण्डित प्रतिमा का पूजन वर्जित है लेकिन यह प्रतिमा पूजनीय है।
प्रतिमा के परिकर में धनुषधारी
रघुनाथजी के दशावतार को दिखाया गया है। नीचे के भाग में दोनों और हनुमानजी बिराजे
हुए हैं। पाश्र्व में खड़ी पंक्ति के दोनो ओर द्वितीय भाग में नृत्यरत आकृतियां, वीणा वादिनी, मृदंग बजाती, शेर व हाथियों की आकृतियां
उत्कीर्ण की गई हैं । इस प्रतिमा की बनावट ऐसी की हुई है कि जिस तरह से आदमी धोती
पहनता है उसी तरह से इस प्रतिमा को पहनाई जाती है। अर्थात् प्रतिमा आर-पार है।
रघुनाथ भगवान की प्रतिमा की विशेषता यह है कि वह प्रातः बाल्यावस्था, दोपहर मे युवावस्था तथा शाम को
वृद्धावस्था के रूप में परिलक्षित होती है।
भगवान रघुनाथजी की प्रतिमा भीलूड़ा के इस मंदिर में कैसे आयी ? इस बारे में एक जनश्रृति प्रचलित है - डूंगरपुर के प्रज्ञाचक्षु सोमपुरा को उसकी इच्छा के अनुसार भगवान राम ने स्वप्न दिया तथा स्वप्न में कहा कि मंदिर में जाकर मेरे नाम का एक पुष्प लेना और आंखों में फेर लेना, आंखों में ज्योति लौट आयेगी। सोमपुरा कारीगर ने रघुनाथजी की प्रतिमा का निर्माण प्रारम्भ कर दिया। जब प्रतिमा बन गई तो एक अनहोनी घटी। सोमपुरा के कान मे लगी छोटी छेनी प्रतिमा के दाहिने पांव पर गिरी जिससे पांव का अंगुठा खण्डित हो गया। सोमपुरा को इस घटित घटना से आघात पहुंचा। उसने अगले दिन से उपवास रखना प्रारम्भ कर दिया। उसी रात को भगवान ने फिर स्वप्न दिया कि ‘मेरी प्रतिमा तुमने खण्डित नही की है, वह तो अब जाकर पूरी हुई है’’ इस प्रकार यह खण्डित चिन्ह भी इस प्रतिमा में परिलक्षित है।
मंदिर में लिखे लेख के आधार पर डूंगरपुर रियासत के महारावल जसवंतसिंहजी (द्वितीय) के शासनकाल में खड़ायता कुबेर वेलजी भाई, वलमजी और पुत्र नवलचंद ने मंदिर के पाट से ऊपर शिखर बनवा कर आषाढ़ सुदी ग्यारस, रविवार, वि.सं. 1879 के दिन पुनः प्रतिष्ठा करवायी। महारावल श्री विजयसिंहजी और महारावल श्री लक्ष्मणसिंहजी ने अपने-अपने शासनकाल में इस मंदिर में बड़े पैमाने पर जीर्णोद्धार करवाया। इस मंदिर में भक्त शिरोमणी दुर्लभरामजी ने भक्तिरस में सराबोर होकर तेरह पद गाये। वे रघुनाथजी के अनन्य भक्त थे। इसके बारे में मंदिर के पुजारी कन्हैयालालजी ने बताया की नागर समाज दुर्लभरामजी को पूजनीय मानता था। दुर्लभरामजी की भक्ति को देखते हुए नागर समाज के कुछ लोगों ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। समाज के कुछ लोगों ने पुजारी से रघुनाथजी मंदिर के पट बन्द कर ताला लगाने को कहा व दुर्लभरामजी से कहा की आपकी भक्ति सच्ची है तो समाज के सभी लोगो को रघुनाथजी के दर्शन करवाओ। उस पर दुर्लभरामजी ने पद गाने प्रारम्भ किये 13 पद खत्म होते ही किवाड़ के ताले टूट गये और कुण्डी खुल गयी। पूजारी के अनुसार वह किवाड़ व ताला कुण्डी वर्तमान में कहा है यह पता नहीं, पर पहले यही हुआ करते थे।
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