चारो ओर कबंधो की जयकार, श्रीराम शरण ही सही उपचार
रामायण में एक बड़ा विचित्र चरित्र है कबंध ! ये राक्षस है जिसका शरीर ही अलग तरह से बना हुआ है। पेट में ही एक आँख है शरीर पर मस्तक नही है। दुर्वासा मुनि ने एक गन्धर्व को श्राप दिया। कारण यह था कि जो व्यक्ति ब्राह्मणों को परेशान करता है उसको राक्षस होना ही ठीक है। जाओ तुम राक्षस हो जाओ।ब्राह्मण का अर्थ -विद्या का प्रचार करने वाला ।
विद्या अर्थात आत्म ज्ञान, अध्यात्म , नैतिक शिक्षा , धर्म , नीति व संस्कारों का सिंचन करने वाला, यज्ञादि व वैदिक परंपरा के साथ समाज में सद्गुणों को अगली पीढ़ी तक ले जाने वाला हर व्यक्ति ब्राह्मण है । ब्राह्मण कोई जाति नही है ब्राह्मण मतलब पांडित्य से पूर्ण व्यक्ति जो समाज का मार्गदर्शक होता है, समाज के कल्याण हेतु चिंतन-मनन करता है।
शैक्षिक व धार्मिक कार्य करने वालों का त्रेतायुग में बहुत सम्मान था । यह निष्काम कर्म माना जाता था। इसलिए राजा महाराजा भी ऐसे व्यक्तियों को आश्रय देते थे।
कबंध राक्षस. चित्र गूगल से |
कबन्ध ऐसे ही व्यक्तियों को परेशान करता था, इसलिए श्रापित बना । बाबा तुलसी ने लिखा -
आवत पंथ कबन्ध निपाता ।
तेहि सब कही साप के बाता ।।
ताहि देई गति राम उदारा ।
सबरी के आश्रम पगु धारा ।।
तेहि सब कही साप के बाता ।।
ताहि देई गति राम उदारा ।
सबरी के आश्रम पगु धारा ।।
कबन्ध का पेट बड़ा होता है, मस्तक नही है और हाथ लंबे है। आँख भी पेट मे ही है और वह भी एक आँख ही है
।
भावार्थ को आध्यात्मिक दृष्टि से समझे तो आज भी कबन्ध कम नही है । बस केवल अपना पेट ही भर रहे है, जिनकी तृष्णा खत्म ही न हो, चारों और से लूट-लूट कर संग्रह ही कर रहे है अपने लिए, चाहे उतना परिग्रह करें संतोष नही होता उनको, आलीशान मकान, सोना-चाँदी, बैंक-बैलेंस को, अकूत दौलत इकट्ठा ही करें वह कबन्ध है । हाथ लम्बे है, मतलब हजारों तरीके से कमा रहा है, कमाने के लिए हाथ इतने लंबे है की जो भी रास्ते में आया उसको भी पकड़ कर खा गया। एक ही आँख, जिसे पता ही नही जीवन केवल पेट पालने के लिए और मैं और मेरा करने के लिए नही है। बस वह एक आँख वाला। ऊपर वाले ने मानव को दो आँखे दी है। आस-पास, पडौस, मित्र, परिवार, देश, धर्म और परलोक का भी विचार जो कभी नही करता वो दो आँख वाला होकर भी एक आँख वाला ही है। वह कबन्ध है।
उसकी आँख पेट में है मतलब यह है की वह पेट पालु है केवल स्वार्थ की एक आँख है। मात्र व्यतिगत लाभ ही दिखता है।
कबन्ध में क अक्षर ऐसा है कि उसका अर्थ नकारात्मक है। जैसे कपट ।
निपाता का अर्थ मार कर गिरा दिया जाय। कुछ विद्वान इसे केवल गिराना ही मानते है।
भोग खराब नही है कुभोग खराब है। भोग अच्छा शब्द है पर कुभोग ठीक नही है।
कामदेव रूपी शिकारी ने सब को कुभोग के तीर द्वारा निपात किया है।
समाज हिंसा को धर्म मान ले तो समझ जाना समाज को ऊपर उठने में वर्षो लग जायेंगे। हिंसा को धर्म रूप में नही स्थापित किया जा सकता है। धर्म के लिए हिंसा ठीक नही है, काम के लिए हिंसा अधर्म है। अधर्म में आखेट, जुआ, पशु हिंसा, मदपान, चोरी, व्यर्थ भाषण ये सब आते है। आज कुछ कबन्ध धर्म को अपने हिसाब से चला रहे है, हिंसा करके धर्म स्थापित कर रहे है। लालच देकर धर्म स्थापित कर रहे है। धर्म की स्थापना कबन्ध नही कर सकता है। धर्म तो राम ही स्थापित करेंगे। राम की यात्रा बहुत लंबी थी, अयोध्या से लंका तक की। कबन्ध कही जाता नही है स्थिर है केवल हाथ ही फैलाता है लेने के लिए।
हम यात्रा करते हुए कही जा रहे है कोई बीच
मे आड़ बने वह कबन्ध है। लौकिक या अलौकिक हो इस यात्रा के बीच में जो अवरोध बनता है
उसे कबन्ध कहा गया है। राम लक्ष्मण इस बाधा से आगे निकल चले। राम सत्य है, ब्रह्म है और लक्ष्मण जीव है।
ब्रह्म को कोई बाधा नही है । पर जीव को कबन्ध से बचने के लिए ब्रह्म के पीछे- पीछे चलना पड़ता है तब कबन्ध परेशान नही करेगा। जीव कैसे चले ब्रह्म के पीछे?शास्त्रों में जीव के चलने के तरीके बताए है - ब्रह्मज्ञान की चर्चा, सत्संग , ध्यान , जप, यज्ञ, दान, तप, गुरु की आज्ञा पालन करना ये ब्रह्म की शरणागति है, ये सब कबन्ध से बचाते है। कबन्ध में बं बीच वाले को थोड़ा पहले कर दो। क अंत में कर दे तो बंधक बन जाता है। एक अच्छा गन्धर्व तीन ऋषियों के कारण बंधक में आया - दुर्वासा, अष्टावक्र, स्थूलशिरा ( ऐसा भी कुछ शास्त्रों में कहा गया है)
ऐसी कौनसी बातें है जो कबन्ध बना देती है। पाँच कारणों से व्यक्ति बंधक बन जाता है मतलब कबन्ध बन जाता है -
1 अधिक स्वतंत्रता का दुरुपयोग न किया जाए।
2 शुभ का दर्शन करें, इंद्रियों को बदले। मतलब निंदा व अपकीर्ति त्याग देना।
3 अनाधिकृत चेष्टा करना। जो अपना नही है उसकी कामना करना, लोभी होना।
4 यौवन, सुंदरता, कला या विद्या का अहंकार आना। गन्धर्व को अपने रूप का अहंकार आ गया।
5. गुरु का अनादर करना। तीन ऋषियों का अपमान बंधक बनना पड़ता है। साधु के अपराध से बचें।
साधु मतलब अच्छे लोगों का बिन कारण निंदा, बुराई करना।
कबन्ध जब गन्धर्व रूप में था तब उसे
अपने रूप का अहंकार था, एक बार अष्टावक्र को देखा आठ जगह शरीर वक्र था
उसने उनकी हँसी उड़ाई, क्योंकि उसे अपने रूप पर गर्व था।अष्टावक्र ने श्राप दिया- तुम राक्षस बन जाओगे तुम्हारी
बड़ी बड़ी भुजा होंगी।
त्रेतायुग में स्वयं नारायण दशरथ पुत्र बन कर आयेंगे तुम्हें राक्षस रूप से उद्धार करेंगे। ऐसा ही हुआ। हर कबन्ध का श्राप श्रीराम की शरण मे जाकर ही होता है।
त्रेतायुग में स्वयं नारायण दशरथ पुत्र बन कर आयेंगे तुम्हें राक्षस रूप से उद्धार करेंगे। ऐसा ही हुआ। हर कबन्ध का श्राप श्रीराम की शरण मे जाकर ही होता है।
कबन्ध ने श्रीराम जी से पूछा- आप कौन है? कबन्ध की भुजा बहुत लंबी है। उसने अपनी भुजा से दोनो को पकड़ा है। लक्ष्मण ने बताया - ये दशरथनन्दन श्रीराम मेरे बड़े भ्राता है। हम माता सीता की खोज में है। गन्धर्व रूपी कबन्ध राक्षस के हाथ खड्ग से लक्ष्मण ने काट दिए। लक्ष्मण ने पूछा - तुम कौन हो? - उसने बताया, मैं पूर्व जन्म में गन्धर्व था। श्राप के कारण राक्षस कबन्ध बना।कबन्ध ने सलाह दी कि मुझे खड्डे में डाल कर जला दो फिर उसमें से मेरा दिव्य रूप प्रकट होगा, वापस गन्धर्व रूप में आ जाउँगा फिर आपको सीता जी के बारे में सब बता सकूँगा ।
राम ने सीता के हरण करने वाले रावण के बारे में बताया। रावण को हम जानते नही पर उसकी खोज में है।
उसको व्यवस्था कर जलाया। कबन्ध मूल गन्धर्व रूप में प्रकट हुआ, दिव्य विमान आया उस विमान में बैठ कर प्रभु को मार्गदर्शन दिया।
कबन्ध ने राम को मतंग मुनी के आश्रम
जाने की सलाह दी जहाँ शबरी मिलेगी। कबन्ध ने सुग्रीव से मित्रता करने का लाभ बताया। मार्गदर्शन देकर वह दिव्य धाम चला गया। लक्ष्मण ने शंका व्यक्त की- प्रभु
ये कैसा गन्धर्व है आपके हाथ से उद्धार हुआ है पहले हमें बात करता और शिष्ठता के
साथ विमान में बैठता तो कैसा रहता?
राम ने सुंदर बात कही - जिससे राय लेनी हो
या सीखना हो उसे ऊँचा बैठाना ही पड़ता है। वह हमारा मार्गदर्शन कर रहा था। उसके लिए
विमान ठीक है हम नीचे ठीक है। एक राक्षस पुनः
गन्धर्व बन सकता है, दिव्य लोक को जा सकता है, भला मनुष्य क्या नहीं कर सकता है। बस चाहिए एक श्री रामजी।
गन्धर्व, देव,
किन्नर और इंसान सभी जीव मात्र अपने ही कर्मो से कब कबन्ध बन जाए
पता नही चलता है। पर रघुनाथ जी कृपा और गुरु का आशीर्वाद मिल जाये तो दिव्य विमान
(उच्च पद) भी प्राप्त कर लेता है ।
रधुपति चरण कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनी गति पाई।।
रधुपति चरण कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनी गति पाई।।
आलेख – पं. राजेन्द्र कुमार पंचाल सामलिया
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